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________________ श्रावकाचार-संग्रह न मे मृच्छेति यो वक्ति सञ्चिन्वन् द्रव्यमघप्रदम् । 'स बुभुक्षां विना भक्षत्यन्नं मन्ये दशोचितम् ॥१२१ शतमिच्छति निःस्वः प्राक् तत्प्राप्तौ स्यात्सहस्रधीः । तल्लाभे लक्षधीरित्थं तष्णाऽप्रेऽग्रे विसर्पति ॥१२२ शान्तिमिच्छति तृष्णाया यो धनेन विचेतनः । शान्त्यै दीप्तस्य सप्ताः सरिः क्षिपतीन्धनम् ॥१२३ वित्ते सत्यपि सन्तुष्टो न यस्तस्य सुखं कुतः । मानसे यस्य सन्तोषः स निःस्वोऽपि सदा सुखी ॥१२४ परिग्रहग्रहातानां दुर्विकल्पशताकुलम् । स्वास्थ्यं नैति मनो वातकम्पिताश्वत्थपत्रवत् ॥१२५ आवायाऽदाय काष्ठानि मद्या वाहाच्चकार यः । सुवर्णवृषभाल्लोभादणिक स प्रापदापदम् ॥१२६ इत्यादिहेतुदृष्टान्तैर्दुष्टं ज्ञात्वा परिग्रहम् । प्रमितं कुर्वते सर्व धनदासाद्यमुत्तमाः ॥१२७ यथा यथा कषायाणामन्तर्भवति मन्दता। बहिः परिग्रहासक्तिर्मान्धमेति तथा तथा ॥१२८ बहिः परिग्रहोऽल्पत्वं नीयते जयंथा यथा। तथा तथा कषायाणामन्तर्भवति मन्दता ॥१२९ परिग्रहप्रमाणं यः करोति विजितेन्द्रियः । सन्तोषावद्यमान्द्याभ्यां स स्याल्लोकद्वये सुखी ॥१३० मच्छी परिग्रहे त्यक्त्वा गृहेऽपि सुविधिपः । भूत्वाऽच्युतेन्द्रस्तुर्येऽभूद् भवे प्रथमतीर्थकृद् ॥१३१ अतो मुमुक्षणा हेया मूर्छाऽल्पेऽपि परिग्रहे । वक्ष्यमाणा अतिचारा अपि पञ्चात्र सर्वथा ॥१३२ सुवर्णरूप्ययोर्दासी-वासयोः क्षेत्र-वास्तुनोः । कुप्यस्य च प्रमाणस्यातिक्रमो धन-धान्ययोः ॥१३३ अपथ्यका सेवन करता है ॥ १२० ॥ जो पाप करनेवाले धनको संचित करता हुआ भी यह कहता है कि मेरी इसमें मूर्छा नहीं है, वह भूखके बिना दश पुरुषके उचित अन्नको खाता है, ऐसा मैं मानता हूँ॥ १२१ ।। निर्धन पुरुष पहिले सौ रुपयोंकी इच्छा करता है, सौ की प्राप्ति हो जानेपर वह हजार पानेकी इच्छा करता है । और हजारके लाभ हो जाने पर लाख पानेकी इच्छा करने लगता है इस प्रकार तृष्णा आगे-आगे बढ़ती जाती है ।। १२२ ।। जो मूर्ख धनसे तृष्णाकी शान्ति चाहता है वह हवन करनेवाला आचार्य प्रदीप्त अग्निकी शान्तिके लिए उसमें और इन्धनको डालता है ।। १२३ ॥ धनके होनेपर भी जो सन्तुष्ट नहीं होता है, उसके सुख कहाँसे हो सकता है ? जिसके मनमें सन्तोष है वह निर्घन होता हुआ भी सदा सुखी है ॥ १२४ ॥ जिस प्रकार वायुसे कंपित पीपलका पत्ता कभी स्थिर नहीं रहता, उसी प्रकार परिग्रहरूपी ग्रहसे पीड़ित मनुष्योंका सहस्रों खोटे विकल्पोंसे आकुल-व्याकुल मन स्थिरताको प्राप्त नहीं होता है ॥ १२५ ॥ नदीके प्रवाहसे लकड़ियोंको ला-लाकरके जिस वणिक्ने सोनेका बैल बनवाया, वह उसके लोभसे आपत्तियोंको प्राप्त हुआ ॥ १२६ ।। इत्यादि हेतु और दृष्टान्तोंसे परिग्रहको खोटा जानकर उत्तम पुरुष धन, दासी, दास आदि सभी प्रकारके परिग्रहका परिमाण करते हैं ।। १.७ ।। जैसे-जैसे कषायोंकी अन्तरंगमें मन्दता होती जाती है, वैसे-वैसे हो बाहिरी परिग्रहकी आसक्ति भी मन्द होती जाती है ॥ १२८ ॥ ज्ञानी पुरुष जैसे-जैसे बाहिरी परिग्रहकी कमी करते जाते हैं, वैसे-वैसे ही उनके अन्तरंगमें कषायोंकी मन्दता होती जाती है ।। १२९ ॥ जो जितेन्द्रिय पुरुष परिग्रहका परिमाण करता है, वह सन्तोष और पापोंकी मन्दतासे दोनों लोकोंमें सुखी होता है ।। १३० ।। सुविधिराजा घरमें रहते हुए भी परिग्रहमें मूर्छाको छोड़कर अच्युत स्वर्गका इन्द्र होकर चौथे भवमें प्रथम तीर्थकर हुआ ।। १३१ । इसलिए मुमुक्ष पुरुषको अल्प भी परिग्रहमें मूीका त्याग करना चाहिए । तथा वदामाण पांचों ही इस व्रतके अतीचार सर्वथा छोड़ना चाहिए ॥ १३२ ।। सोना-चांदीके, दासी-दासके, क्षेत्र-वास्तुके, धन-धान्यके और कुप्यके प्रमाणका अतिक्रम करना ये पाँच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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