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________________ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार ५०९ सुराः सन्निधिमायान्ति पूजयन्ति च भूभुजः । श्वेतयत्यखिलं लोकं शोलेन विमलं यशः ॥१०८ कुशीलानां गुणाः सर्वे दोषरूपा भवन्त्यहो । गुणरूपाः सुशीलानां सर्वे दोषाश्च निश्चितम् ॥१०९ बह्मचर्यव्रतं मुख्यं तत सर्वव्रतेष्वपि । यतो हरि-हरादीनां सुराणामपि दुष्करम् ॥११० शीलमाहात्म्यतः सीतां दहनोऽपीह नादहत् । कण्ठे सुदर्शनस्यासिः श्रेष्ठिनो हारतामगात् ॥१११ शोलमाहात्म्यमित्यादिदृष्टान्तैः कथ्यते कियत्। मोक्षोऽपि सुलभो यस्माज्जायतेऽतीव दुर्लभः ॥११२ स्मरतीवाभिनिवेशोऽन्यस्वीकृतास्वीकृतागती। कामक्रीडाऽन्यवीवाहोऽत्रादोऽतीचारपञ्चकम् ॥११३ हेयं सर्वप्रयत्नेन ब्रह्माणुव्रतधारकैः । सातीचारं व्रतं दत्ते न यतो विपुलं फलम् ॥११४ अथ परिग्रहपरिमाणम्चेतनाचेतनं वस्तु गृह्यते परिमाय यत् । परिग्रहप्रमाणाख्यं पञ्चमं तवणुव्रतम् ॥११५ परिमाति न यो ग्रन्थं चेतनाचेतने कुधीः । स्वीचिकोषुर्जगत्सर्वं तदभावेऽपि सोऽघभाक् ॥११६ निमज्जति भवाम्भोधौ नरो भूरिपरिग्रहः । प्रमातिकान्तभारेण भृतः पोत इवाम्बुधौ ॥११७ यः परिग्रहवृद्धयानुमन्यते मूढधीः सुखम् । स गुडाक्तवपीनमत्कोटैमन्यते न किम् ॥११८ गच्छेद् यथा यथोचं स्यात्कल्पेष्वल्पपरिग्रहः । तथा तथा सुखाधिक्यं जगदुर्जगदुत्तमाः ॥११९ यस्तु सञ्चिनुते वित्तं दानपूजादिहेतवे । वमिष्यामोति सोऽपथ्यं सेवते दैववञ्चितः ॥१२० जल बन जाता है, जलधि (जलपूर्ण समुद्रादिक) स्थल हो जाता है, केशरी-सिंह श्वान हो जाता है और साँप फूलोंकी माला बन जाता है ॥ १०७ ॥ शीलके प्रतापसे देवगण समीप आते हैं, राजा लोग पूजते हैं, और निर्मल यश सारे लोकको उज्ज्वल कर देता है ।। १०८ ।। कुशीलवाले लोगोंके सारे गुण दोषरूप हो जाते हैं और उत्तम शीलवाले लोगोंके सभी दोष गुणरूप हो जाते हैं, यह निश्चित है ।। १०९ ।। यतः ब्रह्मचर्यका पालन हरि-हर आदि देवोंके भी दुष्कर है, अतः ब्रह्मचर्यव्रत सर्व व्रतोंमें भी मुख्य माना गया है ।। ११० ॥ शीलके माहात्म्यसे अग्निने सीताको नहीं जलाया । सुदर्शनसेठके गलेमें मारी गई तलवार भी हाररूप हो गई ॥१११॥ इत्यादि दृष्टान्तोंसे शीलका कितना माहात्म्य कहा जाये ? जिससे कि अत्यन्त दुर्लभ भी मोक्ष सुलभ हो जाता है ।। ११२ ॥ कामतीवाभिनिवेश, अन्यस्वीकृत स्त्रीगमन, अन्य अस्वीकृत स्त्रीगमन, अनंगकामक्रीडा और अन्यका विवाह करना ये पांच इस व्रतके अतीचार हैं ॥ ११३ ॥ ब्रह्मचर्याणुव्रत धारियोंको ये पांचों अतीचार पूरे प्रयत्नके साथ छोड़ना चाहिए। क्योंकि अतीचार-युक्त व्रत भारी फलको नहीं देता है ।। ११४ ।। अब परिग्रह परिमाण व्रतको कहते हैं-जो चेतन और अचेतन वस्तु परिमाण करके ग्रहण की जाती.है, वह परिग्रह परिमाण नामका पांचवां अणुव्रत है ॥ ११५ ॥ जो कुबद्धि पुरुष चेतन-अचेतन परिग्रहका परिमाण नहीं करता है और सारे संसारकी वस्तुओंको स्वीकार करनेकी इच्छा करता है, वह उनके अभावमें पापका भागी होता है ।। ११६ ॥ परिग्रहके भारसे भारी हुआ मनुष्य संसार-समुद्र में डूबता है, जैसे कि परिमाणसे अधिक भारसे भरा जहाज समुद्रमें डूबता है ।। ११७ ॥ जो मूढ बुद्धि पुरुष परिग्रहकी वृद्धिसे सुख मानता हैं, वह अपनेको गुड़से लिप्त शरीरको मकोड़ोंसे चिपटा हुआ क्यों नहीं मानता है ।। ११८ ।। श्रावक जैसे जैसे अल्पअल्प परिग्रहवाला होता जाता है, वैसे-वैसे ही ऊपरके स्वर्गों में जाता है और उसके उसी-उसी प्रकारसे सुखको अधिकता होती जाती है, ऐसा लोकोत्तम पुरुषोंने कहा है ॥ ११९ ॥ जो दानपूजादिके लिए धनका संचय करता है, वह देवसे वंचित पुरुष वमन कर दूंगा' ऐसा विचार कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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