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श्रावकाचार-संग्रह
जातु शीलादिमाहात्म्याद्यात्वग्निरपि शोतताम् । मांसाशनाज्जनः कश्चिन्न सुखी जातु जायते ॥१९ क्षुद्रुगाविप्रतीकारहेतोर्यो मांसमत्त्यधीः । स सुखाय करोतीह कण्डूकण्डूयनं नखः ॥२० मांसत्यागान्नणां पुण्यं पुण्यतः सुगतिर्भवेत् । सुखं तत्र ततः कार्यों मांसत्यागः सुखाथिभिः ॥२१
मक्षिकाण्डविमर्दोत्थं तल्लालामलमिश्रितम् ।
म्लेच्छोच्छिष्टीकृतं कोऽत्र दक्षो भक्षति माक्षिकम् ॥२२ यबिन्दुभक्षणात्पापं ग्रामसप्तकवाहजम् । कथं तदपि शंसन्ति श्राद्धादौ मधु दुधियः ॥२३ यो मध्वत्योषधत्वेन सोऽपि गच्छति दुर्गतिम् । रसमाधुर्यलाम्पटयाभक्षतस्तु किमुच्यते ॥२४ यवि कण्ठगतप्राणैर्जीव्यते मधुभक्षणात् । तथापि सर्वसावधं दर्भक्ष्यं न माक्षिकम् ॥२५ फलानि च वटाश्वत्थप्लक्षोदुम्बरभूरुहाम् । जैः काकोदुम्बरस्यापि हातव्यानि व्रतोद्यतैः ॥२६ प्रसानां भूयसां तेषु भक्षितेषु क्षयो भवेत् । ततः स्यात्पातकं श्वभ्रपातकं तानि तत्त्यजेत् ॥२७ स्वयम्मृतत्रसानि स्युस्तानि चेत्तदपि त्यजेत् । तद्भक्षणेऽपि हिसा स्याद्यतो रागादिसम्भवात् ॥२८ खाधान्यप्यनवद्यानि त्यजन्ति विजितेन्द्रियाः । दुःखदान्यथ खाद्यानि मन्दाः खादन्ति केचन ।।२९ किम्पाकफलतुल्यं ये फलमोदुम्बरं विदुः । मेरं सिद्धार्थतुल्यं ते ब्रुवन्तौ न जडाः समाः ॥३० कहीं पर मांस-मक्षणको खाने योग्य प्रमाणित करते हैं, इन लोगोंको मांस-भक्षण-जनित कर्मके विपाक-जनित सुख भी नरकमें प्रमाणित करना चाहिए। १८ ।। कदाचित् शील आदिके माहात से अग्नि भी शीतलताको प्राप्त हो जावे, किन्तु मांस-भक्षणसे कोई भी मनुष्य कभी भी सुखी नहीं हो सकता है ॥ १९ ॥ जो कुबुद्धि जन भूखको, या रोग आदिको शान्त करनेके हेतुसे मांसको खाते हैं, वह इस लोकमें सुख पानेके लिए नखोंसे खुजलीको खुजलाते हैं ।। २० ॥ मांसके त्यागसे मनुष्योंको पुण्य प्राप्त होता है, पुण्यसे सुगति मिलती है और सुगतिमें सुख प्राप्त होता है। अतः सुखार्थी जनोंको मांसका त्याग कर देना चाहिए ॥ २१ ॥ • . मधु मक्खियोंके संमर्दनसे उत्पन्न होता है, वह उनकी लार और मलसे मिश्रित होता है और उसे लाने वाले म्लेच्छ जनोंसे उच्छिष्ट कर दिया जाता है, ऐसे मधुको कौन चतुर पुरुष खाता है? कोई भी नहीं ॥ २२ ॥ जिस मधकी बिन्दमात्रके भक्षणसे सात ग्रामोंके जलाने जितना पाप होता है, उस मधुको दुबुद्धि जन श्राद्ध आदिमें खानेकी बात कैसे कहते हैं, यह वाश्चर्यकी बात है ॥ २३ ॥ जो औषधि रूपसे भी मधुको खाता है, वह भी दुर्गतिको जाता है। फिर जो मधुर रसकी लम्पटतासे खाता है, उसकी दुर्गतिको क्या कहा जा सकता है ।। २४ ॥ यदि मधुके भक्षणसे कण्ठ-गत प्राणवाले भी पुरुष जीवित होते हैं, तो भी सर्व पापरूप मधु दक्ष पुरुषोंको नहीं खाना चाहिए ॥ २५ ॥ व्रत-धारण करनेके लिए उद्यत ज्ञानी पुरुषोंको बड़, पीपल, प्लक्ष, उदुम्बर और काकोदुम्बरके फलोंका भक्षण छोड़ देना चाहिए ।। २६ ।। क्योंकि उन उदुम्बरफलोंके भक्षण करने पर भारी त्रस जीवोंका विनाश होता है, उससे पाप-संचय होता है और उससे नरकमें पतन होता है, इसलिए उन फलोंका खाना छोड़ देना चाहिए ॥ २७॥ यदि उक्त फलोंके सूख जाने पर उनके जीव स्वयं ही मर जावें, तो भी उन सूखे फलोंको नहीं खाना चाहिए, क्योंकि रागभावकी अधिकता होनेसे उनके भक्षणमें भी हिंसा होती है ॥ २८ ॥ जितेन्द्रिय पुरुष तो निर्दोष, भक्षण करनेके योग्य ऐसे भी पदार्थोके खानेका त्याग करते हैं। किन्तु मन्द बुद्धि कुछ लोग दुःख देनेवाले भी उनको खाद्य मान कर खाते हैं ॥ २९॥ जो लोग किम्पाक फलके समान उदुम्बर फलोंको कहते हैं, वे मेरुपर्वतको सरसोंके समान बोलते हुए मूलॊके सदृश भी नहीं हैं ।
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