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श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार प्रत्यक्षं सर्वदुःखानि पश्यन्तो मद्यपानतः । हा तदेवाऽद्रियन्तेऽमो दुधियः केन हेतुना ॥७ अभक्ष्यं मन्यते भक्ष्यं मद्यपो जननी जनीम् । मित्रं रिपुं रिपुं मित्रं श्वमूत्रं मधुरां सुराम् ॥८ अहो भास्वांश्च वारुण्याः योगतोऽधोगतौ गतः । देही मोहग्रहग्रस्तो न जहाति तथापि ताम् ॥९ मद्यैकबिन्दुजा यान्ति जन्तवो यदि दृश्यताम् । पूरयन्ति तदा विश्वं विष्टपं नात्र संशयः ॥१० मद्येनैव क्षयं जाता यादवास्तादृशोऽपि ते । स्वहितायेति विज्ञाय मद्यं त्यजत घोषनाः ॥११ श्वभ्रे दुःखमघाच्छ्वाभ्रमघं प्राणिवधाद भवेत् । नाङ्गियातं विना मांसं सुखार्थी तत्ततस्त्यजेत् ॥१२ पशोः स्वयम्मृतस्यापि हिंसा मांसाशनाद्भवेत् । तत्र सम्मूच्छितानन्तनिगोतक्षयसम्भवात् ॥१३
निशम्य यस्य नामापि सन्तो नाश्नन्ति भोजनम् ।
तन्मांसं सन्मतिः कोऽत्ति प्राणान्तेऽपि घृणास्पदम् ॥१४ सपिक्षीरेषु मुख्येषु दक्षो भक्ष्येषु सत्स्वपि । भक्षयत्यामिषं कश्चन्मृत्वा गन्ता न दुर्गतौ ॥१५ केचिद् वदन्ति भाषादिकायो मेषादिकायवत् । जीवयोगाविशेषेण मांसं तन्न तथा यतः ॥१६ मांसं स्याज्जीवकायो हि जीवकायस्तु तन्न वा। पिता पुरुष एव स्यात्पुरुषो नाखिलः पिता ॥१७ प्रमाणयन्ति कुत्रापि येऽत्र मांसाशनं जडाः । प्रमाणयन्तु ते श्वभ्रे सुखं तत्कर्मपाकजम् ॥१८.
आपदाओंके आगमनका संकेत होता है, और समस्त दोषोंका संयोग होता है ॥ ६ ॥ इस प्रकार मद्य-पानसे होनेवाले सभी दःखोंको प्रत्यक्ष देखते हए भी दुर्बद्ध जन किस कारणसे उसका ही आदर-पूर्वक सेवन करते हैं. यह बडे आश्चर्यकी बात है॥७॥ मद्य-पायी पुरुष अभक्ष्य वस्तको भक्ष्य मानना है, माताको स्त्री, मित्रको शत्र, शत्रुको मित्र, और कुत्तेके मूत्रको मीठी मदिरा मानता है ।। ८ ॥ अहो, प्रकाशवान् सूर्य भी वारुणी ( पश्चिम दिशा और मदिरा ) के संयोगसे अधोगतिमें जाता हैं, अर्थात् अस्तंगत हो जाता है. तथापि मोहरूप ग्रहसे ग्रसित प्राणी उसे नहीं छोड़ता है ? यह बड़े आश्चर्यकी बात है ॥ ९॥ यदि मद्यकी एक बिन्दुमें उत्पन्न होनेवाले जीव दृश्यरूपको धारण करें तो समस्त संसारको पूरित कर देवें, इसमें कोई संशय नहीं है ।। १० ।। देखोउस प्रकारके बलशाली प्रसिद्ध यादव लोग भी मद्यपानसे हो क्षयको प्राप्त हुए हैं, ऐसा जानकर बुद्धिरूपी धनवाले पुरुषोंको अपने हितके लिए मद्यपान छोड़ देना चाहिए ॥११॥
प्राणिघातसे पाप होता है, पापसे नरक मिलता है और नरकमें दुःख प्राप्त होता है । तथा प्राणिघातके बिना मांस उत्पन्न नहीं होता है. अतः सखके इच्छक मनुष्यको मांस-भक्षण छोडना चाहिए ॥ १२ ।। स्वयं मरे हुए भी पशुके मांसको खानेसे भी हिंसा होती है, क्योंकि उस मांसमें उत्पन्न होनेवाले सम्मूछिम अनन्त निगोदिया जीवोंका विनाश होता है ॥ १३ ॥ जिसका नाम भी सुनकर सन्त पुरुष भोजन भी नहीं करते हैं, ऐसे घृणास्पद उस मांसको प्राणान्त होने पर भी कोन सुबुद्धिवाला पुरुष खायगा? कोई भी नहीं ॥ १४ ॥ घो-दूध आदि उत्तम भक्ष्य पदार्थोके रहते हुए भी यदि कोई मांसको खाता है, तो वह मर कर दुर्गतिमें नहीं जायगा ? अवश्य ही जायगा ॥ १५ ॥ कितने ही कुतर्की कहते हैं कि मेषा आदिके कायके समान उड़द, राजमाष आदिका काय भी है, क्योंकि जोवका संयोग दोनों में समान है, फिर उड़द-राजमाषा आदिके समान मांस खाने में क्या दोष है ? ग्रन्थकार कहते हैं कि तर्क ठीक नहीं है, क्योंकि मांस तो जीवका काय है, किन्तु जो जीवका काय हो, वह मांस हो, ऐसा नियम नहीं है । देखो-किसीका भी पिता तो पुरुष ही होगा। सभी पुरुष किसी एक व्यक्तिके पिता नहीं होते हैं ॥ १६-१७ ॥ जो मूढजन यहाँ
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