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________________ श्रावकाचार-संग्रह घण-घण्णाइसमिद्धे सुहं जहा होइ सव्वजीवाणं । मुणिदाणाइसमिद्धे सुहं तहा तं विणा दुक्ख ॥ २९ पत्तविणा दाणं य सुपुत्तविणा बहुघणं महाखेत्तं । चित्तविणा वयगुणचारितं णिक्कारणं जाणे ॥३० जिष्णुद्धा पट्टा जिणपूजा तित्थवंदण-सेसधणं । जो भुंजइ सो भुंजइ जिणुद्दिट्ठ णिरयगइदुक्खं ॥३१ पुत्तकलत्तविदूरो दालिद्दो पंगु मूक बहिरंघो । चंडालाइकुजाई पूयादाणा इ-दव्वहरो ॥ ३२ महत्थपायणासिय कण्णउरंगुलविहोण दिट्ठीए । जो तिव्वदुक्खमूलो पूयादाणाइ - दव्वहरो ॥३३ स्वयकुट्ठमृलसूलो लूयभयंदरजलोय रक्खिसिरो । सीदुण्हवाहिराई पूयादाणंतराय कम्मफलं ॥३४ सम्मविसोहीतवगुणचारित सण्णाणदाणपरिहीणं । भरहे दुस्समयाले मणुयाणं जायदे नियदं ॥३५ ण हि दाणं ण हि पूया ण हि सोलंण हि गुणं ण चारितं । जे जहणा भणिया ते णेरइया कुमाणुसा होंति ॥ ३६ ण वि जाणइ कज्जमकज्जं सेयमसेयं य पुण्ण पावं हि । तथ्वमतच्चं धम्ममधम्मं सो सम्म उम्मुको ॥ ३७ ण वि जाणइ जोग्गमजोग्गं णिच्चमणिच्चं हेयमुवादेयं । सच्चमसच्चं भव्वमभव्वं सो सम्म उम्मुक्को ॥३८ लोइयजणसंगादो होइ मइ-मुहर - कुडिल-दुब्भावो । लोइयसंगं तम्हा जोइ वि विविहेण चाहो ॥३९ उग्गो तिव्वो दुट्ठो दुब्भावो दुस्सुदो दुरालावो । दुम्मइ-रदो विरुद्धो सो जीवो सम्म उम्मुक्को ॥४० ४८२ रहेगी ॥ २८ ॥ धन-धान्यादिसे समृद्ध होने पर जैसे सर्व जीवोंको सुख होता है, उसी प्रकारसे मुनि दानादि से समृद्ध होने पर जीवोंको सुख होता है और उसके बिना दुःख होता है ॥ २९ ॥ पात्र के बिना दान तथा सुपुत्रके बिना बहुत धन और बड़े खेतका होना निरर्थक है, उसी प्रकार मनके बिना व्रत, गुण और चारित्र निष्फल जानना चाहिए ॥ ३० ॥ जो मनुष्य जीणं धर्मायतनोंके उद्धार, बिम्ब-प्रतिष्ठा, जिन-पूजा और तीर्थ- वन्दना के बचे हुए धनका उपभोग करता है, वह नरकगतिके दुःख भोगता है, ऐसा जिनदेवने कहा है ॥ ३१ ॥ जो मनुष्य पूजा दान आदिके द्रव्यका अपहरण करता है, वह पुत्र स्त्री से रहित, दरिद्री, पंगु, मूक, बहरा, अन्धा और चाण्डाल आदि नीच जातिवाला होता है ॥ ३२ ॥ जो पुरुष पूजा दान आदिके द्रव्यका अपहरण करता है, वह हाथ, पैर, नाक, कान, हृदय, अंगुली और दृष्टिसे विहीन तथा तीव्र दु:खोंका मूल होता है ||३३|| क्षय, कुष्ठ, मूल, शूल, लूत ( मकड़ी ) - जनित रोग, भगन्दर, जलोदर, शीत, उष्ण और व्याधिसमूह ये सब जिन-पूजा और पात्र - दानमें अन्तराय करनेके कर्मका फल हैं || ३४ || इस दुःषमकालमें भरत क्षेत्रमें मनुष्योंके नियमसे सम्यक्त्वकी विशुद्धि, तप, मूल गुण, चारित्र, सद्-ज्ञान, और दानकी हीनता होती है ।। ३५ ।। जिन मनुष्योंके नहीं दान हैं, नहीं पूजा है, नहीं शील है, नहीं है और नहीं चारित्र है, वे मर कर नारकी या कुमानुष होते हैं, ऐसा जिनदेवने कहा है || ३६ || जो कर्तव्य - अकर्तव्यको कल्याण-अकल्याणको, पुण्य-पापको तत्त्व अतत्त्वको और धर्मअधर्मको नहीं जानता है, वह सम्यक्त्वसे रहित है || ३७ ॥ जो योग्य-अयोग्यको, नित्य - अनित्यको, हेय-उपादेयको, सत्य-असत्यको और भव्य - अभव्य ( भले-बुरे) को नहीं जानता है, वह मनुष्य सम्यक्त्वसे रहित है || ३८ ॥ मनुष्य लौकिकजनोंके संगसे मति मुखर (वाचाल), कुटिल, और दुर्भाववाला हो जाता है, इसलिए योगीको भी लौकिकजनों का संग छोड़ना चाहिए ।। ३९ । जो मनुष्य उग्र स्वभावी, तीव्र कषायी, दुष्ट, दुर्भाववाला, खोटे शास्त्रका ज्ञाता, खोटा बोलनेवाला, दुर्बुद्धि Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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