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श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचित रयणसार-गत श्रावकाचार सत्तंग रज्ज-णवणिहिभंडार छडंगबल-चउद्दहरयणं । छण्णवदिसहस्सेत्थिविहवं जाणउ सुपत्तदाणफलं ॥१९ सुकुल सुरूव सुलक्खण सुमइ सुसिक्खा सुसील चारित्तं ।
सुहलेस्सं सुहणामं सुहसावं सुपत्तद्दाणफलं ॥२० जो मुणिभुत्तविसेसं भुंजइ सो भुंजए जिणुद्दिष्टुं । संसारसारसोक्खं कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ॥२१ सोदुण्हवाउपिउलं सिलेसिमं तह परीसहव्वाहि । कायकिलेसुववासं जाणिज्जे दिण्णए दाणं ॥२२.
हियमियमण्णं पाणं णिरवज्जोसहि णिराउलं ठाणं । सयणासणमुवयरणं जाणिज्जा देइ मोक्खमग्गरओ॥२३ अणयाराणं वेज्जावच्चं कुज्जा जहेह जाणिज्जा।
गब्भन्भमेव मादाव्वं णिच्चं तहा णिरालसया ॥२४ सप्पुरिसाणं दाणं कप्पतरूणं फलाण सोहं वा। लोहीणं दाणं जइ विमाणसोहासवं जाणे ॥२५ जसकित्ति पुण्णलाहे देह सुबहुगंपि जत्थ तत्थेव । सम्माइसुगुणभायण पत्तविसेसं ण जाणंति ॥२६ जंतं मंतं तंतं परिचरियं पक्खवायपियवयणं । पडुच्च पंचमगाले दाणं ण किंपि मोक्खस्स ॥२७ दाणीणं दालिदं लोहीणं कि हवेइ महसिरियं । उहयाणं पुव्वज्जियकम्मफलं जाव होइ थिरं ॥२८ सात अंग (राजा, मंत्री, मित्र, कोष, देश, दुर्ग और सेना) रूप सार्वभौम राज्य, नव निधि ( काल, महाकाल, पांडु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल, मानारत्न ), छह अंग (गज, अश्व, रथ, पदाति, नर्तकी, दास ) रूप सेना, चौदह रत्न ( अश्व, गज, गृहपति, कामवृष्टि, सेनापति, स्त्रीरत्न, पुरोहित ये सात चेतन रत्न और छत्र, खङ्ग, दण्ड, चक्र, काकिणी, चिन्तामणि और चर्मरत्न ये सात अचेतन रत्न ) और छियानबे सहस्र स्त्रियोंका वैभवरूप. चक्रवर्तीक साम्राज्य पढ़की प्राप्ति सुपात्र-दानका फल जानना चाहिए ॥ १९ ॥ उत्तम कुल, रूप-सौन्दर्य, सुलक्षण, सुबुद्धि, सुशिक्षा, सुशील, सूचारित्र, शुभलेश्या, शुभ नामकर्म. और सख साता वेदनीय इन सबकी प्राप्ति भी सुपात्र-दानका फल जानना चाहिए ॥ २०॥ जो गृहस्थ मुनिको भोजन करानेके पश्चात् अवशिष्ट भोजनको खाता है. वह जिनोपदिष्ट संसारके सार सखोंको भोगकर क्रमसे मक्तिके श्रेष्ठ सुखको भोगता है ।। २१ ॥ पात्रको शीत-उष्ण प्रकृति, वात, पित्त, कफ प्रकृति, परीषह. व्याधि. कायक्लेश और उपवासको जानकर ही तदनुकूल उन्हें दान देना चाहिए ॥ २२ ॥ मोक्ष-मार्गसे निरत गृहस्थ पात्रके लिए हितकारक, परिमित, अन्न-पान, निर्दोष औषधि, निराकुल स्थान, शयन-आसन और उपकरणका औचित्य देख-भाल कर दान देता है ॥ २३ ॥ जैसे माता-पिता इस लोकमें गर्भस्थ बालककी सावधानीसे रक्षा करते हैं, उसी प्रकार निरालस होकर अनगार-साधुओंकी वैयावृत्त्य भी श्रावकोंको नित्य करनी चाहिए ॥ २४ ॥ सत्पुरुषोंका दान कल्पवृक्षोंके फलोंकी शोभाके समान सार्थक है। किन्तु लोभी पुरुषोंका दान मृतकके विमान ( अर्थी ) की शोभाके समान निरर्थक है ।। २५ ।। लोभी पुरुष यश कीति और पुण्य-लाभके लिए पात्र-अपात्रका विचार न करके जिस किसी भी व्यक्तिको बहुत भी दान देता है, किन्तु सम्यक्त्व आदि सद्-गुणोंके भाजन पात्र-विशेषको नहीं जानता ॥ २६ ॥ जंत्र, मंत्र, तंत्र, परिचर्या, पक्षपात और प्रियवचनकी अपेक्षा पंचम कालमें और इस भरत क्षेत्रमें दिया गया दान मोक्षका कुछ भी कारण नहीं है ।। २७ ॥ संसारमें दानियोंके दारिद्रय और लोभी पुरुषोंके महान् ऐश्वर्य क्यों होता है ? इन दोनोंका कारण पूर्वोपार्जित कर्मका फल है और वह कर्म जब तक बना रहेगा, तब तक वैसी दशा बनी
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