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________________ ४०२ श्रावकाचार-संग्रह चैत्यभक्त्यादिभिः स्तुयाज्जिनं सन्ध्यात्रयेऽपि च । कालातिक्रमणं मुक्त्वा स स्यात्सामायिकव्रती ॥९३ मासं प्रत्यष्टमीमुख्यचतुष्पर्वदिनेष्वपि । चतुरभ्यवहार्याणां विदधाति विसर्जनम् ॥९४ पूर्वापरदिने चैका भुक्तिस्तदुत्तमं विदुः । मध्यमं तद्विना क्लिष्टं यत्राम्बु सेव्यते क्वचित् ॥९५ इत्येकमुपवासं यो विदधाति स्वशक्तितः । श्रावकेषु भवेत्तुर्यः प्रोषधोऽनशनव्रती ॥९६ फलमूलाम्बुपत्राद्यं नाश्नात्यप्रासुकं सदा । सचितविरतो गेही दयामूर्तिर्भवत्यसौ ॥९७ मनोवाक्कायसंशुद्धया दिवा नो भजतेऽङ्गनाम् । भण्यतेऽसौ दिवाब्रह्मचारीति ब्रह्मवेदिभिः ॥९८ स्त्रीयोनिस्थानसंभूतजीवघातभयादसौ। स्त्रियं नो रमते त्रेधा ब्रह्मचारी भवत्यतः ॥९९ यः सेवाकृषिवाणिज्यव्यापारत्यजनं भजेत् । प्राण्यभिघातसंत्यागादारम्भविरतो भवेत् ॥१०० दशधा ग्रन्थमुत्सृज्य निर्ममत्वं भजन सदा । संतोषामृतसन्तप्तः स स्यात्परिग्रहोज्झितः ॥१०१ ददात्यनुमति नैव सर्वेष्वैहिककर्मसु । भवत्यनुमतत्यागी देशसंयमिनां वरः ॥१०२ नोद्दिष्टां सेवते भिक्षामुद्दिष्टविरतो गृही। द्वेधैको ग्रन्थसंयुक्तस्त्वन्यः कौपीनधारकः ॥१०३ आद्यौ विदधाति क्षौरं प्रावृणोत्येकवाससम् । पञ्चभिक्षाशनं भुङ्क्ते पठते गुरुसन्निधौ ॥१०४ सन्ध्याकालोंमें चैत्यभक्ति आदिके द्वारा कालका अतिक्रमण न करके जिनदेवकी स्तुति करना यह सामायिक प्रतिमा है ।। ९:-९३ ॥ __ प्रत्येक मासकी अष्टमी और चतुर्दशी इन चारों पर्व दिनोंमें चारों प्रकारके आहारका परित्याग करना, तथा इन पर्वोके पूर्व दिन और पिछले दिन एक बार भोजन करना यह उत्तम प्राषधोपवास है। पहले और पिछले दिनके एकाशनके बिना केवल पर्वके दिन उपवास करना मध्यम प्रोषधव्रत है। और जिसमें पर्वके दिन केवल जलका सेवन क्वचित् कदाचित् किया जाता है. वह जघन्य प्रोषध व्रत है ।। ९४-९५ ॥ इस प्रकार जो श्रावक अपनी शक्तिके अनुसार एक उपवास करता है वह श्रावकोंमें चौथा प्रोषधोपवासवती कहा गया है ।। ९६ ॥ जो गृहस्थ अप्रासुक फल, जल, पत्र, मूल आदिको कभी नहीं खाता है, वह दयामूर्ति सचित्तविरत श्रावक है ।। ९७ ॥ जो मन, वचन, कायकी शुद्धिके साथ दिनमें स्त्रीका सेवन नहीं करता है, उसे ब्रह्मस्वरूपके ज्ञाता जन दिवाब्रह्मचारी कहते हैं ।। ९८ ॥ जो स्त्रीके योनि स्थानमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके घातके भयसे स्त्रीके साथ विषय सेवन त्रियोगसे नहीं करता है वह ब्रह्मचारी है ॥ ९९ ॥ जो सेवा, कृषि, वाणिज्य आदि व्यापागेका त्याग कर देता है, वह प्राणियोंके आरम्भजनित घातका त्याग करनेसे आरम्भविरत कहलाता है ।। १०० ।। - जो क्षेत्र, वास्तु आदि दश प्रकारके परिग्रहका त्याग करके ममता-रहित होता हुआ सदा सन्तोषरूप अमृतसे तृप्त रहता है, वह परिग्रह त्यागी श्रावक है ।। १०१ ॥ जो इस लोक-सम्बन्धी सभी लौकिक कार्योंमें अपने पुत्रादिको सर्वथा अनुमति नहीं देता है, वह देशसंयमधारियोंमें श्रेष्ठ अनुमति त्यागी श्रावक है ।। १०२ ।। उद्दिष्ट त्यागी श्रावक अपने उद्देश्यसे बनी हुई भिक्षाका सेवन नहीं करता है । इसके दो भेद हैं-पहला ग्रन्थ संयुक्त और दूसरा कौपीनधारक । इनमेंसे पहला क्षौर कर्म कराता है, एक आवरण वस्त्र चादर रखता है, पाँच घरसे भिक्षा लाकर खाता है और गुरुके समीप शास्त्र पढ़ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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