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________________ श्री वामदेवविरचित संस्कृत-भावसंग्रह नवविधं विधिः प्रोक्तः पात्रदाने मुनीश्वरैः । तथा षोडशभिर्दोषेरुद्गमाविजितः ॥८० उद्दिष्टं विक्रयानीतमुद्धारस्वीकृतं तथा। परिवत्यं समानीतं देशान्तरात्समागतम् ॥८१ अप्रासुकेन सम्मिश्रं मुक्तिभाजनमिश्रता । अधिका पाकसंवृद्धिमुनिवृन्दे समागते ॥८२ समीपीकरणं पङ्क्तौ संयतासंयतात्मनाम् । पाकभाजनतोऽन्यत्र निक्षिप्यानयनं तथा ॥८३ निर्वापितं समुक्षिप्य दुग्धमण्डादिकं च यत् । नीचजात्यापितार्थं च प्रतिहस्तात्सपितम् ॥८४ यक्षादिबलिशेष वा चानीय चौवंसद्मनि । ग्रन्थिमुद्भिद्य यदत्तं कालातिक्रमतोऽपितम् ॥८५ राजादीनां भयाद्दत्तमित्येषा दोषसंहतिः । वर्जनीया प्रयत्नेन पुण्यसाधनसिद्धये ॥८६ आहारं भक्तित्तो दत्तं दात्रा योग्यं यथाविधि । स्वीकर्तव्यं विशोध्यैतद्वीतरागयतीशिना ॥८७ योग्यकालागतं पात्रं मध्यम वा जघन्यकम् । यथावत्प्रतिपत्त्या च दानं तस्मै प्रदीयताम् ॥८८ यदि पात्रमलब्धं चेदेवं निन्दा करोत्यसौ । वासरोऽयं वृथा यातः पात्रदानं विना मम ।।८९ इत्येवं पात्रदानं यो विदधाति गृहाश्रमी । देवेन्द्राणां नरेन्द्राणां पदं सम्प्राप्य सिद्धचति ॥२० अणुवतानि पञ्चैव सप्तशीलगुणः सह । प्रपालयति निःशल्यो भवेद्वतिको गृही ॥९१ चतुस्त्र्यावर्तसंयुक्तश्चतुर्नमस्क्रियायुतः । द्विनिषद्यो यथाजातो मनोवाक्कायशुद्धिमान् ॥९२ मुनीश्वरोंने पात्र दानमें कही है। तथा पात्रको आहारदान उद्गम आदि सोलह दोषोंसे रहित देना चाहिए ॥ ७९-८० ।। वे दोष इस प्रकार हैं-साधुके उद्देश्यसे बनाया, खरीद कर या कुछ वस्तु बेंचकर लाया गया, किसी पात्रमेंसे निकाला, दूसरेका दिया हुआ स्वीकृत आहार, परिवर्तन करके लाया गया, देशान्तरसे आया हुआ, अप्रासुक वस्तुसे मिश्रित आहार, खानेके पात्रसे मिश्रित, मुनि जनोंके आने पर पकाई जानेवाली वस्तु और अधिक वस्तुसे मिला हुआ आहार, संयतासंयत श्रावकोंकी पंक्तिमें समीप किया हुआ, पकानेके पात्रसे अन्यत्र रखा या निकाल कर लाया गया, मर्यादासे बाहरका दूध, मांड आदि डाला हुआ, नीच जातिके लोगोंको अर्षण करनेके लिए रखा हुआ, दूसरेके हाथसे समर्पित, यक्षादिकी पूजासे बचा हुआ, ऊपरकी मंजिलसे लाया हुआ, किसी बर्तनकी गांठ, मोहर आदिको भेदन करके दिया हुआ, कालका अतिक्रमण करके अर्पण किया जाता हुआ, और राजा आदिके भयसे दिया गया ऐसा आहार, इन सब दोषोंके समुदायरूप माहार पुण्य साधनकी सिद्धिके लिए प्रयत्नके साथ त्याग करना चाहिए ।। ८१-८६ ॥ जो योग्य आहार दाताके द्वारा विधि-पूर्वक भक्तिके साथ दिया जाय, उसे ही वीतरागी मुनिराजको शोध करके स्वीकार करना चाहिए ।। ८७ ।। योग्य कालमें आये हुए उत्तम, मध्यम या जघन्य पात्रको यथा विधि यथोचित आदर-सत्कारके साथ दान देना चाहिए ।। ८८ ॥ यदि श्रावकको पात्रका लाभ नहीं होता है, तो वह इस प्रकारसे अपनी निन्दा करता है कि पात्र दानके बिना आजका मेरा दिन व्यर्थ गया ।। ८९ । इस प्रकार जो गृहाश्रमी श्रावक पात्र दान करता है, वह देवन्द्रों और नरेन्द्रोंके उत्तम पदोंको पाकर सिद्ध पदको प्राप्त करता है । ९०॥ इस प्रकार जो गृहस्थ पांचों अणुव्रतोंको सात शील गुणोंके साथ तोनों शल्योंसे रहित होकर पालन करता है, वह व्रतिक अर्थात् दूसरो व्रतप्रतिमाका धारक-श्रावक कहलाता है ॥९१॥ चार बार तीन-तीन आवर्त करमा, चार नमस्कार करना, खड़े या बैठनेरूप दो बासन लगाना, यथा जात वेष धारण करना. मन, वचन, कायको शुद्धि रखना, इतनी विधिके साथ तीनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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