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श्री वामदेव विरचित संस्कृत-भावसंग्रह
अथवा सिद्धचक्राख्यं यन्त्रमुद्धार्य तत्त्वतः । सत्पञ्चपरमेष्ठ्याख्यं गणभृवलयक्रमम् ॥५४ यन्त्र चिन्तामणिर्नाम सम्यग्शास्त्रोपदेशतः । सम्पूज्यात्र जपं कुर्यात् तत्तन्मन्त्रैर्यथाक्रमम् ॥५५ तद्यन्त्रगन्धतो भाले विरचय्य विशेषकम् । सिद्धशेषां प्रसंगृह्य न्यसेन्मूनि समाहितः ॥५६ चैत्यभक्त्यादिभिः स्तुयाज्जिनेन्द्रं भक्तिनिर्भरः । कृतकृत्यं स्वमात्मानं मन्यमानोऽद्य जन्मनि ॥५७ संक्षेपस्नानशास्त्रोक्तविधिना चाभिषिच्य तम् । कुर्यादष्टविधां पूजां तोयगन्धाक्षतादिभिः ॥ ५८ अन्तर्मुहूर्तमात्रं तु ध्यायेत् स्वस्थेन चेतसा । स्वदेहस्थं निजात्मानं चिदानन्दैकलक्षणम् ॥५९ विधायैवं जिनेशस्य यथावकाशतोऽर्चनम् । समुत्थाय पुनः स्तुत्वा जिनचैत्यालयं व्रजेत् ||६० कृत्वा पूजां नमस्कृत्य देवदेवं जिनेश्वरम् । श्रुतं संपूज्य सद्भक्त्या तोयगन्धाक्षतादिभिः ॥६१ संपूज्य चरणौ साधोर्नमस्कृत्य यथाविधिम् | आर्याणामायिकाणां च कृत्वा विनयमञ्जसा ॥६२ इच्छाकारवचः कृत्वा मिथः साधमिकः समम् । उपविश्य गुरोरन्ते सद्धमं शृणुयाद् बुधः ॥६३ देयं दानं यथाशक्त्या जैनदर्शनवर्तनाम् । कृपादानं च कर्तव्यं दयागुण विवृद्धये ॥६४ एवं सामायिकं सम्यग्यः करोति गृहाश्रमी । दिनैः कतिपयेरेव स स्यान्मुक्तिश्रियः पतिः ॥ ६५ मासं प्रति चतुर्व्वेव पर्वस्वाहारवर्जनम् । सकृद् भोजनसेवा वा काञ्जिकाहारसेवनम् ॥६६ एवं शक्त्यनुसारेण क्रियते समभावतः । स प्रोषधो विधि: प्रोक्तो मुनिभिर्धर्मवत्सलैः ॥६७
करे । अथवा जैसा अवकाश हो, तदनुसार यथायोग्य मंत्रोंसे जाप करे ।। ५३ ।। अथवा यथार्थ विधिसे सिद्धचक्र नामक यंत्रका उद्धार करके, या सत्पञ्चपरमेष्ठि यंत्रका, या गणधर वलय यंत्रका, या चिन्तामणि नामक यंत्रका सम्यक् शास्त्र के उपदेशानुसार पूजन करके उन उनके मंत्रों द्वारा यथाक्रमसे जाप करे ।। ५४-५५ ।। जिस यंत्रका पूजन करे, उस यंत्रके गन्धसे मस्तक पर विशेषक ( टीका - तिलक आदि ) लगाकर सिद्धशेषा ( आशिका ) को लेकर सावधानीपूर्वक मस्तक पर रखे ।। ५६ ।। पुनः भक्ति से भरपूर होता हुआ चैत्यभक्ति आदिके द्वारा जिनेन्द्र देवकी स्तुति करे और इस जन्म में अपनी आत्मानको कृतकृत्य माने ॥ ५७ ॥ ( अथवा ) अभिषेक पाठके शास्त्रमें कही गई विधि भगवान्का अभिषेक करके जल, गन्ध, अक्षत आदि द्रव्योंसे आठ प्रकारका पूजन करे ।। ५८ ।। पश्चात् स्वस्थ चित्त होकर एक अन्तर्मुहूर्त्तकाल तक अपने देहमें स्थित चिदानन्द-लक्षण स्वरूप अपनी आत्माका ध्यान करे ।। ५९ ।।
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इस प्रकार अपने घर पर अवकाशके अनुसार जिनदेवका पूजन करके और फिर भी स्तुति करके उठकर जिन चैत्यालयको जावे ।। ६० ।। वहां पर देवाधिदेव जिनेश्वर देवको नमस्कार कर, पूजन कर सद्-भक्ति से जल, गन्ध, अक्षतादिसे श्रुतका पूजन करके, वहाँ पर विद्यमान साधुके चरणोंको विधिपूर्वक पूज कर और आर्यपुरुष ऐलक आदि और आर्यिकाओंकी भलीभाँतिस विनय करके इच्छाकार वचन बोलकर और साधर्मिक जनोंके साथ परस्पर यथोचित जय जिनेन्द्र आदि कहकर और गुरुके समीप बैठ करके उनसे ज्ञानी श्रावकको धर्मका उपदेश सुनना चा हए ।। ६१-६३॥ जैन दर्शनका आचरण करनेवालोंको यथाशक्ति दान देना चाहिए और दयागुणकी विशेष वृद्धि के लिए अनुकम्पा दान करना चाहिए || ६४ || इस प्रकार जो गृहस्थाश्रम में रहनेवाला सम्यक् प्रकार सामायिकको करता है, वह कुछ ही दिनों ( भवों ) में मुक्तिलक्ष्मीका पति होता है ॥६५॥ प्रत्येक मासके चारों ही पर्वोंमें आहारका परित्याग करके प्रोषधोपवास करना चाहिए । यदि शक्ति न हो तो एक बार भोजन या कांजीका आहार करना शक्ति के अनुसार जो गृहस्थ समभावसे पर्वके दिन आहारका त्याग
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चाहिए || ६६ || इस प्रकार करता है, उसे धर्म-वत्सल
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