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________________ ४६८ श्रावकाचार-संग्रह कुर्यात्संस्थापनं तत्र सन्निधानविधानकम् । नीराजनैश्च निवृत्य जलगन्धादिभिर्यजेत् ॥४० इन्द्राधष्टदिशापालान् दिशाष्टसु निशापतिम् । रक्षोवरुणयोर्मध्ये शेषमीशानशक्रयोः ॥४१ न्यस्याह्वानादिकं कृत्वा क्रमेणैतान् मुदं नयेत् । बलिप्रदानतः सर्वान् स्वस्वमन्त्रैर्यथादिशम् ॥ ४२ ततः कुम्भं समुद्धार्य तोयचोचेक्षुसदसैः । सघृतैश्च ततो दुग्धैर्दधिभिः स्नापयेज्जिनम् ॥४३ तोयैः प्रक्षाल्य सच्चूर्णैः कुर्यादुद्वर्तनक्रियाम् । पुनर्नीराजनं कृत्वा स्नानं कषायवारिभिः ।।४४ चतुष्कोणस्थितैः कुम्भस्ततो गन्धाम्बुपूरितैः । अभिषेकं प्रकुर्वीरन् जिने शस्य सुखार्थिनः ॥४५ स्वोत्तमाङ्गप्रसिच्याथ जिनाभिषेकवारिणा । जलगन्धादिभिः पश्चादर्चयेद्विम्बमर्हतः ॥४६ स्तुत्वा जिनं विसापि विगीशादिमरुद्गणान् । अचिते मूलपीठेऽथ स्थापयेज्जिननायकम् ॥४७ तोयैः कर्मरजःशान्त्यै गन्धः सौगन्धसिद्धये। अक्षतैरक्षयावाप्त्यै पुष्पैः पुष्पशरच्छिदे ॥४८ घरभिः सुखसंवृद्ध देहवीप्त्यै प्रदीपकैः । सौभाग्यावाप्तये धूपैः फलैर्मोक्षफलाप्तये ॥४९ घण्टाधर्मङ्गलद्रव्यमङ्गलावाप्तिहेतवे । पुष्पाञ्जलिप्रदानेन पुष्पदन्ताभिदीप्तये ॥५० तिसृभिः शान्तिधाराभिः शान्तये सर्वकर्मणाम् । आराधयेज्जिनाधीशं मुक्तिश्रीवनितापतिम् ॥५१ इत्येकावशषा पूजां ये कुर्वन्ति जिनेशिनाम् । अष्टौ कर्माणि सन्दह्य प्रयान्ति परमं पदम् ॥५२ अष्टोत्तरशतैः पुष्पैः जापं कुर्याज्जिनाग्रतः । पूज्यैः पश्चनमस्कारैर्यथावकाशमञ्जसा ॥५३ भगवान्को स्नानपीठके ऊपर पहुंचावे ।। ३९ ॥ वहां पर संस्थापन और सन्निधान विधान करे, पूनः नीराजन ( आरती ) करके जल-गन्धादि द्रव्योंसे भगवान्का पूजन करे ॥ ४० ॥ पूजन करनेके पूर्व इन्द्र आदि अष्ट दिग्पालोंको पूर्व आदि आठों दिशाओं में चन्द्रको ऊर्ध्व दिशामें और धरणेन्द्रको अधो दिशामें आवाहनपूर्वक स्थापित करके उन-उनके मंत्रोंके साथ बलि प्रदान क्रमसे करके उन्हें हर्षित करे ।। ४१-४२ ॥ तत्पश्चात् कलशका उद्धार करके जल, इक्षु, घृत, दुग्ध, दधि आदि उत्तम रसोंसे जिन भगवान्का अभिषेक करे ।। ४३ ।। पुनः जिनबिम्बको जलसे प्रक्षालन कर उत्तम चूर्णसे उसकी उद्वर्तन क्रिया करे । पुनः आरती उतार कर कषाय द्रव्य मिश्रित जलसे स्नान कराके चारों कोणोंमें स्थित सुगन्धित जलसे भरे हुए चारों कलशोंसे सुखार्थी जन जिनेश्वर देवका अभिषेक करें ॥ ४४-४५ ।। तत्पश्चात् जिनाभिषेकके जलसे अपने मस्तकको सोंचकर पुनः अर्हत्प्रतिबिम्बका जल-गन्धादि द्रव्योंसे पूजन करे ॥ ४६ ।। पुनः जिनदेवकी स्तुति करके दिग्पालादि देवगणोंको विसर्जन करके मूलपीठ पर जिनदेवको स्थापित करे। इस प्रकारसे पूजन करने पर जल द्वारा की गई पूजा कर्म-रजको शान्तिके लिए होतो है, गन्ध द्रव्योंसे की गई पूजा शारीरिक सुगन्धिकी सिद्धिके लिए होती है, अक्षतोंसे की गई पूजा अक्षयपदकी प्राप्तिके लिए होती है, पुष्पोंसे की गई पूजा काम-विकारके विनाशके लिए होती है, नैवेद्योंसे की गई पूजा सुखको वृद्धिके लिए होती है, दीपकोंसे की गई पूजा शरीरको दीप्तिके लिए होती है, धूपसे को गई पूजा सौभाग्यकी प्राप्तिके लिए होती है, फलोंसे की गई पूजा मोक्षफलकी प्राप्तिके लिए होतो है ।। ४७-४९ ।। घण्टा आदि मंगल द्रव्योंसे की गई पूजा मंगलकी प्राप्तिके लिए होती है । पुष्पाञ्जलि-प्रदान करनेसे चन्द्र-सूर्य के समान दीप्ति प्राप्त होती है ॥ ५० ॥ तीन शान्तिधाराओंके द्वारा की गई पूजा सर्व कर्मोंकी शान्ति के लिए होती है। इस प्रकार मुक्ति लक्ष्मीके स्वामी श्री जिनेश्वर देवकी आराधना करनी चाहिए ।। ५१ ।। इस रीतिसे जो श्रावक जिनेश्वरोंकी ग्यारह प्रकारसे पूजा करते हैं, वे आठों कर्मोको जलाकर परमपदको प्राप्त होते हैं ।। ५२ ।। तत्पश्चात् जिन भगवान्के आगे एक सौ आठ पुष्पोंके द्वारा पूज्य पंचनमस्कार मंत्रसे जाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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