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________________ ४२४ श्रावकाचार-संग्रह अतिसन्धापनं मिथ्योपदेश इह चान्यथा। यदभ्युदयमोक्षार्थक्रियास्वन्यप्रवर्तनम् ॥५२ रहोऽभ्याख्यानमेकान्तस्त्रीपुंसेहाप्रकाशनम् । कूटलेखक्रियान्येन त्वनुक्तस्य स्वलेखनम् ॥५३ विस्मृतन्यस्तसंख्यस्य स्वल्पं स्वं संप्रगृह्णतः । न्यासापहार एतावदित्यनुज्ञापकं वचः ॥५४ साकारमन्त्रभेदोऽसौ भ्रूविक्षेपादिकेङ्गितैः । पराकूतस्य बुद्धवाविर्भावनं यदसूयया ॥५५ यत्सत्याणुव्रतस्यामी पञ्चातीचारकाश्चिरम् । परिहार्याः समर्यादैविचार्याचार्यवेदिभिः ॥५६ बेधस्तेनप्रयोगस्तैराहृतादानमात्मनः । अन्यो विरुद्धराज्यातिक्रमश्चाक्रमकक्रये ॥५७ होनेन दानमन्येषामधिकेनात्मनो ग्रहः । प्रस्थादिमानभेदेन तुलाद्युन्मानवस्तुनः ॥५८ रूपकैः कृत्रिमः स्वर्णैर्वञ्चनः प्रतिरूपकः । व्यवहारस्त्वतीचारास्तृतीयाणुव्रतस्य ते ॥५९ परविवाहाकरणमनङ्गक्रीडया गतो। गृहीतागृहीतेत्वर्योः कामतीवाभिवेशनम् ॥६० एते स्वदारसन्तोषव्रतस्याणुव्रतात्मनः । अतीचाराः स्मृताः पञ्च परिहार्याः प्रयत्नतः ॥६१ हिरण्यस्वर्णयोर्वास्तुक्षेत्रयोर्धनधान्ययोः । दासीदासाद्ययोः पञ्च कुप्यस्यैते व्यतिक्रमाः ॥६२ पांच अहिंसाणुव्रतके अतिचार कहे गये हैं ।। ५०-५१ ॥ मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमन्त्रभेद ये पाँच सत्याण व्रतके अतिचार हैं। किसीको धोखा देना तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करानेवाली क्रियाओंमें दूसरोंकी अन्यथा प्रवृत्ति कराना मिथ्योपदेश है। स्त्रीपुरुषोंकी एकान्त चेष्टाको प्रकट करना रहोभ्याख्यान है। जो बात दूसरेने नहीं कही है उसे उसके नाम पर स्वयं लिख देना कूटलेख क्रिया है। कोई मनुष्य धरोहरमें रखे हुए धनकी संख्या भूलकर उससे स्वल्प ही धनका ग्रहण करता है तो उस समय ऐसा वचन बोलना कि "हाँ इतना ही था ले जाओ" यह न्यासापहार है। भौंहका चलाना आदि चेष्टाओंसे दूसरे रहस्यको जानकर ईर्ष्यावश उसे प्रकट कर देना साकारमन्त्रभेद है। मर्यादाके पालक तथा आचार शास्त्रके ज्ञाता मनुष्योंको विचार कर इन अतिचारोंका अवश्य हो परिहार करना चाहिए ।। ५२-५६ ॥ स्तेनप्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्ध राज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपकव्यवहार ये पांच अचौर्याणुव्रतके अतिचार हैं। कृत कारित अनुमोदनासे चोरको चोरोमें प्रेरित करना स्तेनप्रयोग है। चोरोंके द्वारा चुराकर लाई हुई वस्तुका स्वयं खरीदना तदाहृतादान है। आक्रमणकर्ताको खरीद होने पर स्वकीय राज्यको आज्ञाका उल्लंघन कर विरुद्ध राज्यमें आना-जाना, अपने देशकी वस्तुएँ वहाँ ले जा कर बेचना विरुद्ध राज्यातिक्रम नामका अतिचार है। प्रस्थ आदि मानमें भेद और तुला आदि उन्मानमें भेद रखकर होनमानोन्मानसे दूसरोंको देना और अधिक मानोन्मानसे स्वयं लेना हीनाधिकमानोन्मान नामका अतिचार है। कृत्रिम-मिलावटदार सोना, चांदी आदिके द्वारा दूसरोंको ठगना प्रतिरूपक व्यवहार नामका अतिचार है ।। ५७-५९ ॥ परविवाहकरण, अनङ्गक्रीडा, गृहीतेत्वरिकागमन, अग्रहीतत्व रिकागमन, और कामतीव्राभिनिवेश ये पाँच स्वदार सन्तोष व्रतके अतिचार हैं। प्रयत्नपूर्वक इनका परिहार करना चाहिए । अपनी या अपने संरक्षणमें रहनेवाली सन्तानके सिवाय दुसरेकी सन्तानका विवाह कराना परविवाहकरण है। काम सेवनके लिए निश्चित अंगोंके अतिरिक्त अंगोंके द्वारा काम सेवन करना अनंगक्रीडा है। दूसरेके द्वारा अगृहीत व्यभिचारिणी स्त्रीके यहाँ जाना गृहीतेत्वरिकागमन है। दूसरेके द्वारा अगृहीत व्यभिचारिणो स्त्रीके यहाँ जाना अगृहीतत्वरिकागमन है। और स्वस्त्रीके साथ भी काम सेवनमें अधिक लालसा रखना कामतीव्राभिनिवेश है ।। ६०-६१ ॥ हिरण्य-सुवर्ण वास्तु-क्षेत्र, धान-धान्य दासी दास और कुप्य-वर्तन तथा वस्त्रको सीमाका उल्लंघन करना ये पांच परिग्रह परिणामवतके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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