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हरिवंशपुराणगत - श्रावकाचार
माध्यस्थ्यैकत्वगमनं देवतास्मरणस्थितिः । सुखदुःखारिमित्रादौ बोध्यं सामायिकं व्रतम् ॥३९ चतुराहारहानं यशिरारम्भस्य पर्वसु । स प्रोषधोपवासोऽक्षाण्युपेत्यास्मिन् वसन्ति यत् ॥४० गन्धमाल्यान्नपानादिरुपभोग उपेत्य यः । भोगोऽन्यः परिभोगो यः परित्यज्यासनादिकः ॥४१ परिमाणं तयोर्यत्र यथाशक्ति यथायथम् । उपभोगपरीभोगपरिमाणव्रतं हि तत् ॥४२ मांसमद्य मधुद्यूत वेश्या स्त्रीनक्तभुक्तितः । विरतिनिर्यमो ज्ञेयोऽनन्तकायादिवर्जनम् ॥४३ स संयमस्य वृद्ध्यर्थमततीत्यतिथिः स्मृतः । प्रदानं संविभागोऽस्मै यथाशुद्धिर्यथोदितम् ॥४४ भिक्षौषधोपकरणप्रतिश्रयविभेदतः । संविभागोऽतिथिभ्यस्तु चतुविध उदाहृतः ॥४५ सम्यक्कायकषायाणां बहिरन्तर्हि लेखना । सल्लेखनापि कर्तव्या कारणे मारणान्तिकी ॥४६ रागादीनां समुत्पत्तावागमोदितवत्र्त्मना । अशक्यपरिहारे हि सान्ते सल्लेखना मता ॥४७ अष्टौ निःशङ्कतादीनामष्टानां प्रतियोगिनः । सम्यग्दृष्टेरतीचा रास्त्याज्याः शङ्कादयः सताम् ॥४८ पञ्च पञ्च त्वतीचारा व्रतशीलेषु भाविताः । यथाक्रमममी वेद्याः परिहार्याश्व तद्व्रतैः ॥४९ गतिरोधक बन्धो वधो दण्डातिताडना । कर्णाद्यवयवच्छेदोऽप्यति भारातिरोपणम् ॥५० अन्नपाननिरोधस्तु क्षुद्बाधादिकरोऽङ्गिनाम् | अहिंसाणुव्रतस्योक्ता अतिचारास्तु पञ्च ते । ५१ देनेमें जो पापबन्धके कारण संचित होते हैं, वह पापसे युक्त दुःश्रुति नामका अनर्थदण्ड है ॥ ३८ ॥ इन पापों और इन सरीखे अन्य निरर्थक पाप कार्योंके त्याग करनेको अनर्थदण्डव्रत कहते हैं ।
देवताके स्मरणमें स्थित पुरुषके सुख-दुःख, तथा शत्रु मित्र आदिमें जो माध्यस्थ्य भाव होता है, उसे सामायिक शिक्षाव्रत जानना चाहिए ।। ३९ ।। प्रत्येक मासके चारों पर्वोंमें निरारम्भ रह कर चार प्रकारके आहारका त्याग करना सो प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत है। जिसमें इन्द्रियां बाह्य संसारसे हटकर आत्माके समीप वास करती हैं, वह उपवास कहलाता है ॥ ४० ॥ गन्ध माला अन्न पान आदि उपभोग हैं और आसन आदिक परिभोग हैं। पास जाकर जो भोगा जाय, वह उपभोग है और जो पुनः पुनः भोगा जाय, वह परिभोग है । जिस व्रतमें उपभोग और परिभोगका यथाशक्ति परिमाण किया जाता है, वह उपभोग परिभोग- परिमाणव्रत है ।। ४१-४२ ॥ मांस, मदिरा मधु जुआ वेश्या तथा रात्रि भोजनसे विरत होना, एवं अनन्तकाय आदिका त्याग करना सो नियम कहलाता है || ४३ ॥ जो संयमकी वृद्धिके लिए निरन्तर घूमता रहता है, वह अतिथि कहा जाता है, उसे शुद्धिपूर्वक आगमोक्त विधिसे आहार आदिका देना अतिथि संविभागव्रत है ॥ ४४ ॥ भिक्षा औषध उपकरण और आवासके भेदसे अतिथि संविभाग चार प्रकारका कहा गया है || ४५ || मृत्युके कारण उपस्थित होने पर बहिरंग में शरीर और अन्तरंग में कषायोंका अच्छी तरह कृश करना सल्लेखना कहलाती है । व्रती मनुष्यको मरणके अन्त समय यह अवश्य करना चाहिए || ४६ || जब मरणका किसी भी प्रकारसे परिहार न किया जा सके, तब रागादि - की अनुत्पत्तिके लिए आगमोक्त मार्गसे सल्लेखना करना उचित माना गया है ॥ ४७ ॥
निःशङ्क आदि आठ अङ्गों के विरोधी शङ्का, कांक्षा आदि आठ दोष सम्यग्दर्शनके अतिचार हैं । सत्पुरुषों को इनका त्याग अवश्य हो करना चाहिए ॥ ४८ ॥ पाँच अणुव्रत तथा सात शीलव्रतोंमें प्रत्येक पाँच-पाँच अतिचार होते हैं । यहाँ यथाक्रमसे उनका वर्णन किया जाता है । तद् तद् व्रतोंके धारक मनुष्योंको उन अतिचारोंका अवश्य ही परिहार करना चाहिए || ४९ ॥ जीवों की गति में रुकावट डालना, बांधना, दण्ड आदिसे अत्यधिक पीटना, वत्र, कान आदि अवयवोंका छेदना, अधिक भार लादना और भूख आदिकी बाधा करनेवाला अन्नपानका निरोध ये
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