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रत्नमाला
मद्यमांसमधुत्यागफलं केनानुवर्ण्यते । काकमांसनिवृत्त्याऽभूत्स्वर्ग खदिरसागरः ॥३८ मद्यस्यावद्यमूलस्य सेवनं पापकारणम् । परत्रास्तामिहाप्युच्चजननों वाञ्छयेदरम् ॥३९ गर्मुतोऽशुचिवस्तूनामप्यादाय रसान्तरम् । मधूयन्ति कथं तनापवित्र पुण्यकर्मसु ॥४० व्यसनानि प्रवानि नरेण सुधियाऽन्वहम् । सेवितान्याहतानि स्युनंरकायाश्रियेऽपि च ॥४१ छत्रचामरवाजोभरथपादातिसंयुताः । विराजन्ते नरा यत्र ते रात्र्याहारजिनः ॥४२ दशन्ति तं न नागाद्या न असन्ति च राक्षसाः । न रोगाश्चापि जायन्ते यः स्मरेन्मन्त्रमव्ययम् ॥४३ रात्रौ स्मृतनमस्कारः सुप्तः स्वप्नान् शुभाशुभान् । सत्यानेव समाप्नोति पुण्यं च चिनुते परम् ।।४४ नित्यनैमित्तिकाः कार्याः क्रियाः श्रेयोऽथिना मुदा । ताभिगूढमनस्को यत्पुण्यपण्यसमाश्रयः ।।४५ अष्टम्यां सिद्धभक्त्यामा श्रुतचारित्रशान्तयः। भवन्ति भक्तयो नूनं साधूनामपि सम्मतिः ॥४६ पाक्षिक्याः सिद्धचारित्रशान्तयः शान्तिकारणम् । त्रिकालवन्दनायुक्ता पाक्षिक्यपि सतां मता ॥४७ चतुर्दश्यां तिथौ सिद्धचैत्यश्रुतसमन्विते । गुरुशान्तिनुते नित्यं चैत्यपञ्चगुरू अपि ॥४८
पुरुषने अपनी अतितृष्णाका विनाश किया, उसने निश्चित रूपसे अपनी संसार-स्थितिको अल्प किया है और वह कैवल्य सुखको संगतिको निश्चितरूपसे प्राप्त करेगा ॥३७॥
मद्य, मांस और मधुके त्यागका फल किसके द्वारा वर्णन किया जा सकता है ? देखोखदिरसार केवल काक-मांसको निवृत्तिसे स्वर्गमें देव हुआ ॥३८॥ पापोंके मूलकारणरूप मद्यका सेवन महापापका कारण है । परलोकको बात तो दूर ही रहे, मद्य पीनेवाला इसी लोकमें ही अपनी माताके साथ विषयसेवनकी इच्छा करने लगता है ॥३९।।
मधु-मक्खियाँ विष्टा आदि अशुचि वस्तुओंके एवं पुष्पादिके अन्य रसोंको ग्रहण करके मधुको उत्पन्न करती हैं, फिर वह पवित्र कार्यों में अपवित्र क्यों नहीं है ? अर्थात् महा अपवित्र है ॥४१॥ बुद्धिमान् मनुष्यको सदा ही सभी प्रकारके व्यसन छोड़ना चाहिए। जो व्यसनोंको सेवन करते हैं और उनका आदर करते हैं, वे नरकके लिए तथा अपने अकल्याणके लिए भी तैयारी करते हैं ॥४१॥ जो मनुष्य यहाँपर छत्र, चामर, अश्व, हस्ती, रथ और पैदल सैनिकोंसे संयुक्त होकर सिंहासनोंपर विराजमान हैं, वे सब रात्रि-भोजनके त्यागी रहे हैं। अर्थात् रात्रिभोजपरित्यागके फलको भोग रहे हैं ॥४२॥
जो अनादि-निधन पंच नमस्कार मंत्रका स्मरण करते हैं, उनको साँप आदि डंसते नहीं, और न राक्षस ही उन्हें ग्रस्त कर सकते हैं। तथा उनके शरीरमें रोग भी नहीं होते हैं ॥४२॥ रात्रिमें पंचनमस्कार मंत्रका स्मरण करता हुआ जो सोता है, वह जिन शुभ और अशुभ स्वप्नोंको देखता है, वे सत्य ही सिद्ध होते हैं। तथा मंत्र-स्मरण करनेवाला परम पुण्यका संचय करता है ॥४४॥ आत्म-कल्याणके इच्छुक पुरुषको हर्षके साथ सदा ही नित्य और नैमित्तिक क्रियाएं करते रहना चाहिए, क्योंकि उनसे व्याप्त चित्त पुरुष पुण्यरूपी दुकानका आश्रय करनेवाला होता है ।।४५॥
अष्टमीके दिन सिद्धभक्तिके साथ श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति और शान्तिभक्ति करनी चाहिए। साधुओंके भी ये भक्तियां करने योग्य हैं, ऐसी आचार्योकी सम्मति है ॥४६॥ पाक्षिक प्रतिक्रमणके दिन सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, शान्तिभक्ति, करना शान्तिका कारण है। त्रिकाल वन्दनासे युक्त ये भक्तियां पाक्षिक भी सन्तोंके मानी गई हैं ॥४७चतुर्दशी तिथिके दिन सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति,
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