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________________ ४१२ श्रावकाचार-संग्रह येनाखकाले यतीनां वैयावृत्यं कृतं मुदा । तेनैव शासनं जैनं प्रोद्धतं शर्मकारणम् ॥२५ उत्तगतोरणोपेतं चैत्यागारमघक्षयम् । कर्तव्यं श्रावक शक्त्यामरादिकमपि स्फुटम् ॥२६ येन श्रीमज्जिनेशस्य चैत्यागारमनिन्दितम् । कारितं तेन भव्येन स्थापितं जिनशासनम् ॥२७ गोभूमिस्वर्णकच्छादिवानं वसतयेऽर्हताम् । कर्तव्यजीर्णचैत्यादिसमुद्धरणमप्यदः ॥२८ । सिद्धान्ताचारशास्त्रषु वाच्यमानेषु भक्तितः । धनव्ययो व्ययो नृणां जायतेऽत्र महर्द्धये ॥२९ दयादत्त्यादिभिर्नेनं धर्मसन्तानमुद्धरेत् । दीनानाथानपि प्राप्तान् विमुखान्नैव कल्पयेत् ॥३० व्रतशोलानि यान्येव रक्षणीयानि सर्वदा । एकेनैकेन जायन्ते देहिनां दिव्यसिद्धयः ॥३१ मनोवचनकायर्यो न जिघांसति देहिनः । स स्याद गजादियुद्धेषु जयलक्ष्मीनिकेतनम् ॥३२ सुस्वरस्पष्टवागीष्टमतव्याल्यानवक्षिणः । क्षणार्धनिजितारातिरसत्यविरतेभवेत् ॥३३ चतुःसागरसीमाया भुवः स्यादधिपो नरः । परद्रव्यपरावृत्तः सुवृत्तोपाजितस्वकः ॥३४ मातपुत्रीभगिन्यादिसङ्कल्पं परयोषिति । तन्वानः कामदेवः स्यान्मोक्षस्यापि च भाजनम् ।।३५ जायाः समनशोभायाः सम्पदो जगतीतले । तास्तत्सर्वा अपि प्रायः परकान्ताविवर्जनात् ॥३६ अतिकांक्षा हता येन ततस्तेन भवस्थितिः । हस्विता निश्चिता वास्य कैवल्यसुखसङ्गतिः ॥३७ पीछो प्रमुख (कमण्डलु आदि) वस्तुओं का दान करना दाताकी मुक्तिके लिए होता है ॥२२-२४॥ जिस पुरुषने आजके वर्तमानकालमें हर्ष-पूर्वक साधुओंको वैयावृत्त्य की, उसने ही सुखके कारणभूत जेनशासनका उद्धार किया, ऐसा जानना चाहिए ॥२५॥ ___ उन्नत तोरण द्वारसे युक्त, पाप-विनाशक चैत्यालय भी श्रावकोंको अपनी शक्तिके अनुसार बनवाना चाहिए और सुन्दर शास्त्रोक्त प्रमाणवाली जिनदेवको प्रतिमा और यंत्र आदिका भी निर्माण कराना चाहिए ॥२६।। जिसने श्री जिनेन्द्रदेवका निर्दोष चैत्यालय कराया, उस भव्यने मानो साक्षात् जिन शासनको ही स्थापित किया ॥२७॥ अरहन्तोंकी वसति (मन्दिर) के लिए गौ, भूमि, स्वर्ण और कच्छ (कछार, पर्वत या जलके किनारेकी भूमि) आदिका भी दान करना चाहिए तथा जीर्ण चैत्य, चैत्यालय आदिका भी उद्धार करना चाहिए ॥२८॥ बाँचे जानेवाले सिद्धान्तशास्त्रोंमें, आचारशास्त्रोंमें भक्तिसे किया जानेवाला धनका व्यय मनुष्योंको इसी लोकमें महाऋद्धिकी प्राप्तिके लिए कारण होता है ॥२९॥ दयादत्ति आदिके द्वारा निश्चयसे धर्मकी सन्तान-परम्पराका उद्धार करना चाहिए । तथा अपने घर आनेवाले दीन-अनाथ लोगोंके खाली हाथ नहीं लौटाना चाहिए ॥३०॥ जिन व्रत-शीलोंको धारण किया हुआ है, उनकी सर्वदा प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए । क्योंकि इन एक-एक व्रत-शीलके प्रभावसे प्राणियोंको दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥३१॥ ___ जो मन वचन कायसे किसी प्राणीको नहीं मारता है, वह हाथी-घोड़े आदिके युद्धोंमें विजयलक्ष्मीका निकेतन (आलय) होता है ॥३२॥ असत्यके त्यागसे मनुष्य उत्तम स्वरवाला, स्पष्ट वाणी बोलनेवाला, अपने इष्ट मतके व्याख्यान देने में कुशल और आधे क्षणमें प्रतिवादियोंको जीतनेवाला होता है ॥३३॥ जो पराये द्रव्यके ग्रहण करने अर्थात् चुरानेसे पराङ्मुख रहता है और न्याय-नीतिसे धनको उपार्जन करता है, वह मनुष्य चारों दिशाओंके सागरान्त सीमावाली पृथिवीका स्वामी होता है ॥३४॥ जो पुरुष परस्त्रीमें माता, पुत्री और बहिन आदिका संकल्प करता है वह कामदेव होता है और मोक्षका पात्र भी होता है ॥३५।। इस जगती तलपर सुन्दर स्त्रियाँ, और समग्र शोभा सम्पन्न जितनी भी सम्पदाएं हैं वे प्रायः सभी परस्त्रीके परित्यागसे प्राप्त होती हैं ।।३६।। जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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