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________________ श्रावकाचार संग्रह सामायिक प्रोवघोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च ॥ २१॥ मारणान्तिकों सल्लेखनां जोषिता ॥२२॥ शङ्काकाङ्क्षा विचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टे रतीचाराः ॥ २३॥ व्रतशीलेषु पश्च पश्च यथाक्रमम् ॥२४॥ बन्धबधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोषाः ॥ २५ ॥ मिथ्योपदेश रहोम्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥ २६ ॥ स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्ध राज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥२७॥ परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडाकाम तीव्राभिनिवेशा: ॥२८॥ क्षेत्रवास्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः ॥२९॥ sasuस्तियं व्यतिक्रमक्षेत्र वृद्धिस्मृत्यन्त राधानानि ॥३०॥ आनयन प्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥३१॥ कन्दर्पकौत्कुच्य मौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥३२॥ ४०८ उसे अणुव्रती कहते हैं ||२०|| ऐसा अणुव्रती गृहस्थ दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत, सामायिकव्रत, प्रोषधोपवासव्रत, उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत और अतिथिसंविभागव्रत इन सात शीलव्रतोंसे भी सम्पन्न होता है ||२१|| उक्त व्रतोंके धारक गृहस्थको मरणके समय होनेवाली सल्लेखनाको प्रीतिके साथ धारण करना चाहिए ||२२|| व्रतमें दोष लगनेको अतीचार कहते हैं । अतः आचार्य उनसे बचने के लिए सम्यक्त्व और व्रतोंके अतीचा रोंका निरूपण करते हैं जिनोक्त तत्त्वमें शंका करना, धर्म धारणकर उससे भोगोंकी आकांक्षा रखना, धर्मात्माओंसे ग्लानि करना, मिथ्यादृष्टियोंकी मनसे प्रशंसा करना और वचनसे उनकी स्तुति करना, ये सम्यग्दर्शनके पांच अतीचार हैं ॥२३॥ पाँच व्रतों और सात शीलोंमें भी पाँच-पाँच अतीचार होते हैं, वे यथा क्रमसे इस प्रकार हैं ||२४|| बांधना, मारना, अंग छेदना, अधिक भार लादना और अन्नपानका निरोध करना ये अहिंसाणुव्रत के पाँच अतीचार हैं ||२५|| मिथ्योपदेश, रहोऽभ्याख्यान, कूटलेख क्रिया, न्यासापहार और साकारमंत्रभेद ये पाँच सत्याणुव्रतके अतीचार हैं ||२६|| चोरीके लिए भेजना, चोरीसे लाये गये धनको लेना, राज्यनियमोंके विरुद्ध प्रवृत्ति करना, हीनाधिक नापनातोलना, और असली वस्तुमें नकली वस्तु मिलाकर बेंचना, ये पांच अचौर्याणुव्रतके अतीचार हैं ॥२७॥ दूसरोंका विवाह करना, परिगृहीता व्यभिचारिणीके यहाँ गमन करना, अपरिगृहीता व्यभिचारिणीके यहाँ गमन करना, अनंग-क्रीड़ा करना और कामसेवनमें तीव्र अभिलाषा रखना, ये पाँच ब्रह्मचर्याणुव्रत अतीचार हैं ॥२८॥ क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-सुवणं, धन-धान्य, दासी दास और कुप्य (वस्त्रादिक) के स्वीकृत प्रमाणका अतिक्रमण करना, ये परिग्रहपरिमाणाणुव्रतके पाँच अतीचार है ||२९|| ऊर्ध्व दिशाकी सीमाका अतिक्रम करना, अधोदिशाको सीमाका उल्लंघन करना, तिरछी दिशाओंकी सीमाका उल्लंघन करना, क्षेत्रकी सीमा बढ़ा लेना और स्वीकृत सीमाका भूल जाना, ये पांच दिग्व्रतके अतीचार हैं ||३०|| संकल्पित देशके बाहिरसे किसी वस्तुको मँगाना, किसीको सीमा बाहिर भेजना, सीमाके बाहिर स्थित पुरुषको शब्दसे संकेत करना, रूप दिखाकर संकेत करना और पुद्गल (कंकर-पत्थरादि) फेंककर संकेत करना, ये पाँच देशव्रतके अतीचार हैं ॥३१॥ कन्दर्प (हास्य युक्त वचन बोलना ) कोत्कुच्च (कायकी कुचेष्टा करना) यद्वा तद्वा बकवाद करना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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