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________________ ३८७ भव्यमानोपदेश उपासकाध्ययन पल्यैकस्य चतुर्थांशं तारकाणां च ह्यायुषम् । कथितं हि नरेन्द्रस्य गणेशैजिनभाषितम् ॥२१४ सौधर्मेशानकल्पेषु सागरद्वयमायुषम् । मध्यमोत्तमविशेयं कल्पैदिशभिः क्रमात् ॥२१५ द्वितीये युगले सप्त तृतीये दश सागराः । चतुर्दशं चतुर्थे च पञ्चमे षोडश स्मृताः ॥२१६ षष्ठे तु युगले प्रोक्ता अष्टादश सुसागराः । सप्तमे विंशतिः प्रोक्ता द्वाविंशतिहि चाष्टमे ॥२१७ नवग्रेवेयकेषूच्चैःक्रमेणकैकवधितम् । नवानुविशविमानानां प्रोक्ता द्वात्रिंशत्सागरा ध्रुवम् ॥२१८ पञ्चानुत्तरमायुष्यं त्रयस्त्रिंशच्च सागराः । भुक्त्वा च सुखमुत्कृष्टं मोक्षं गच्छन्ति सुव्रताः ॥२१९ एवमादिवतादीनां फलं निर्वाणकारणम् । अव्रतेन भवेद् दुःखं नारकीयं न संशयः ॥२२० सुदर्शनममोघं च सुप्रबुद्ध यशोधरम् । सुभद्रं च विशालं च सुमनः सौमनस्तथा ॥२२१ प्रीतिकरविमानानि वेयकनामानि भोः । अनुविशानुत्तराणां तु नामानि निशम्यताम् ॥२२२ अय॑चिमालिनी प्रोक्ता वैरं वैरोचनप्रभम् । सौम्यं सौम्यप्रभ ज्ञेयं स्फटिकं स्फटिकप्रभम् ॥२२३ सूर्यप्रभं विमानं च नवमं ज्ञेयमनुदिशम् । कथितं हि नरेन्द्रस्य मुनोशैजिनभाषितम् ॥२२४ विजयं वैजयन्ताख्यं जयन्तमपराजितम् । सर्वार्थसिद्धिनामाख्यं विमानपञ्चकं तथा ॥२२५ सौधर्म पञ्चपल्यायुर्वेवीनां हि जिनागमे । ईशाने सप्तपल्यायुः सानते नव पल्यकम् ॥२२६ आयु एक पल्यको होती है और शेष ग्रहोंकी उत्कृष्ट आयु अर्ध पल्यकी कही गई है ।।२१३॥ तारकाओंको उत्कृष्ट आयु एक पल्यका चतुर्थ भाग-प्रमाण है । इस प्रकार गणधर देवने राजा श्रेणिकसे जिन-भाषित यह उत्कृष्ट आयु कही ॥२१४॥ सौधर्म और ऐशान कल्पमें उत्कृष्ट आयु दो सागरसे (कुछ अधिक) होती है । आगे बारह कल्पोंमें क्रमसे उत्कृष्ट आयु इस प्रकार जाननी चाहिए ॥२१५॥ दूसरे युगलमें सात सागर, तीसरे युगलमें दश सागर, चौथे युगलमें चौदह सागर, और पांचवें कल्पमें सोलहर साग उत्कृष्ट आयु कही गई है ।।२१६|| छठे युगलमें उत्कृष्ट आयु अठारह सागर, सातवें युगलमें बीस सागर और आठवें युगलमें बाईस सागर उत्कृष्ट आयु कही गई है ॥२१७॥ उसके ऊपर नौ ग्रेवेयकोंमें क्रमसे एक एक सागर बढ़ाते हुए नवें उपरिम अवेयकमें इकतीस सागरकी और नौ अनुदिश विमानोंकी उत्कृष्ट आयु बत्तीस सागरकी नियमसे कही गई है ॥२१८॥ पांचों अनुत्तर विमानोंकी उत्कृष्ट आयु तेंतीस सागर कही गई है। वहांके उत्कृष्ट सुख भोगकर और मनुष्य भवमें सुव्रत धारण करके वे मोक्षको जाते हैं ॥२१९।। इस प्रकार आदि अहिंसा व्रत आदि व्रतोंका फल परम्परासे निर्वाणका कारण है। किन्तु जो व्रत-पालन नहीं करते हैं किन्नु त जीवन बिताते हैं, उनके उस पापके निमित्त नारकीय दुःख होते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है ॥२२०॥ हे राजन्, नौ ग्रेवेयकोंके नाम इस प्रकार हैं-१ सुदर्शन, २ अमोघ, ३ सुप्रबुद्ध, ४ यशोधर, ५ सुभद्र, ६ विशाल, ७ सुमन, ८ सौमनस और ९ प्रीतिकर विमान । अब अनुदिश और अनुत्तर विमानोंके नाम सुनिये ॥२२१-२२२॥ १ अचिं, २ अचिमालि, ३ वैरप्रभ, ४ वैरोचनप्र- ५ तीम्य, ६ सौम्यप्रभ, ७ स्फटिक, ८ स्फटिकप्रभ और ९ अनुदिश सूर्यप्रभ विमान जानना चाहिए। इस प्रकार मुनियोंके स्वामी गणधर देवने राजा श्रेणिकसे इस प्रकार जिन-भाषित नाम कहे ॥२२३२२४॥ अनुत्तर विमानोंके नाम-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और पांचवां सर्वार्थसिद्धि नामका विमान है ॥२२५॥ श्री जिनागममें सौधर्म स्वर्गमें देवियोंकी उत्कृष्ट यु पांच पल्य, ईशान स्वर्गमें सात पल्य, सानत स्वर्गमें नौ पल्य है। आगे सहस्रार स्वर्ग तक दो दो पल्य बढ़ती हुई आयु है, अर्थात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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