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________________ ३७८ श्रावकाचार-संबह सत्यं शौचं दया धर्मः परमाध्यात्मचिन्तनम् । द्यूते वा मद्यपानेऽपि न विद्यन्ते कदाचन ॥११२ द्यूतान्धा हि न पश्यन्ति मातृ-श्वसृ-सुताः स्त्रियः । निर्दया निष्ठुरत्वेन वेगाताडयन्ति ध्रुवम् ॥११३ मद्यपानरता ये तु तेषां किं कथयाम्यहम् । अथं च धर्मनाशं च प्रलापी दुस्मरस्तथा ॥११४ मद्याहतोऽद्धतश्चैव मान्यामन्यं तु जल्पते । गुरुर्देवः पिता बन्धन च ध्यायन्ति मद्यपाः ।।११५ रूपनाशो भवेद् भ्रान्तिः कार्यस्योत्तरणं तथा। विद्वेषः प्रीतिनाशश्च मद्यदोषाः प्रकीत्तिताः ॥११६ मद्येन यादवाः सर्वे मताः क्रुद्धाः परस्परम् । हत्वा हि निधनं प्राप्ता सर्वशास्त्र ह्यदाहृता. ॥११७ दाहो मूर्छा भ्रमस्तन्द्रा प्रमादः शिरसो व्यथा । विरेचोऽन्धवनं चैव मद्यपानस्य दूषणम् ॥११८ मद्यं सर्षपमात्र तु भक्ष्यमाणं तथा ध्रुवम् । भक्षका नरकं यान्ति धर्मशास्त्र उदाहृताः ॥११९ मांसाहारो दुराचारो रौद्रध्यानपरायणः । निष्ठुरो निर्दयत्वेन चाण्डालो भण्यते बुधैः ॥१२० चाण्डालहतहस्तेषु मांसं गृह्णन्ति ये नराः । तावत्ते नरकं यान्ति यावच्चन्द्रार्कतारकाः ॥१२१ मांसाशिनां भवेल्लिङ्गं मांसदानं स उच्यते । तस्माज्जीवान् प्रयत्नेन जीवादपि च रक्षयेत् ॥१२२ विख्याता राक्षसाश्चैव बकादिबहवो जनाः । राक्षसत्वं च प्राप्तास्ते मृत्वा च नरकं गताः ॥१२३ वेश्यासङ्गेन सर्वेऽपि संसारोत्पत्तिकारणाः । कामक्रोधादयस्तेन वृद्धि नीता सुदारुणाः ॥१२४ पानमें भी सत्य, शौच, दया, धर्म, परमात्म-चिन्तन और आत्मचिन्तन ये गुण कदाचित भी नहीं होते हैं ॥११२।। जुआ खेलनेमें अन्ध अर्थात् संलग्न मनुष्य नियमसे माता, बहिन, लड़की और स्त्रीको निर्दय होकर निष्ठुरतापूर्वक जोर-जोरसे मारते-पीटते हैं ||११३॥ दूसरा व्यसन मदिरापान है । जो लोग मदिरापानमें निरत रहते हैं उनके दोषोंको मैं क्या कहूँ ? उनका धन और धर्मका नाश होता है, वे प्रलाप करते हैं और उनमें दुर्जय काम-लालसा जागृत होती है ॥११४॥ मदिराके नशेमें चुर हुला व्यक्ति मान्य पुरुषसे भी अपमानके वचन कहने लगता है, शराबी पुरुष गुरु, देव, पिता और भाई-बन्धुओंका भी ध्यान नहीं रखते हैं ।।११५॥ मद्य-पानसे रूपका नाश होता है, भ्रान्ति उत्पन्न होती है, कार्यका विनाश होता है, विद्वेष बढ़ता और प्रीतिका नाश होता है, ये सब मद्यके दोष कहे गये हैं ॥११६।। मदिरा-पानसे मत्त हुए सभी यादव क्रोधित होकर परस्पर लड़कर विनाशको प्राप्त हुए, यह बात सभी शास्त्रोंमें कही गई है ॥११७।। शरीरमें दाह, मूर्छा, भ्रम, तन्द्रा, प्रमाद, शिर-पीड़ा, विरेचन और अन्धपना ये सब मद्यपानके दूषण हैं ॥११८।। यदि सरसोंके बराबर भी मद्य सेवन किया जाता है तो उसके सेवन करनेवाले नरकमें जाते हैं, यह बात धर्मशास्त्रमें कही गई है ।।११९।। तोसरा व्यसन मांस-भक्षण है । मांसका आहार करना दुराचरण है, उसे खानेवाला सदा रौद्र-ध्यानमें तत्पर रहता है, निष्ठुर और कर हो जाता है और निर्दय हो जानेसे विद्वज्जन उसे चाण्डाल कहते हैं ॥१२०॥ जो मनुष्य चाण्डालके हाथोंसे मारे गये जीवोंके मांसको ग्रहण करते हैं, वे तब तक नरक जाते हैं, जब तक संसारमें चन्द्र, सूर्य और तारे विद्यमान हैं ॥१२१।। मांस खानेवालोंका लिंग (चिह्न) मांस दान कहा जाता है। इसलिए जीवोंको प्रयत्नके साथ दूसरे जीवोंके जीवनकी रक्षा करनी चाहिए ॥१२२॥ मासको खानेसे बक आदि अनेक जन राक्षसपनेको प्राप्त हुए और मरकर नरक गये । मांस खानेवाले राक्षस होते हैं, यह बात विख्यात है ॥१२॥ चोथा व्यसन वेश्या-सेवन है। वेश्याके संगसे संसारकी उत्पत्तिके कारणभूत सभी काम, क्रोध आदि अतिदारुण दुर्गुण वृद्धिको प्राप्त होते हैं ॥१२४|| वेश्याके प्रपंचमें पड़े हुए लोग विश्वास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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