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________________ भव्यधर्मोपदेश उपासकाध्ययन द्विदलं गोरसं मिश्र पीयूषं द्वयवासरात् । वर्जयेज्जिनभक्तो हि वर्शनीको विशेषतः ॥ १०० अयोग्यं नवनीतं च मथितं दधि एव च । द्विदिनात्परतः मद्यं शीतलानं तथा नृप ॥१०१ मण्डघावमहीवं तु उष्णाम्बु-रहितं तथा । मात्वरनं पक्वफलं सौवीरं वर्जनं ध्रुवम् ॥१०२ सर्पिः क्षीरं गुडं तैलं दधि धान्या सलादिह । स्वादभ्रष्टं न भोक्तव्यं भव्यैस्तु जिनभाषितम् ॥१०३ लोहं लाक्षं विषं शस्त्रं सरघामधुवर्जनम् । आयुधं घातकार्थानां तत्सवं नैव विक्रयेत् ॥ १०४ दर्शनप्रतिमाचारं यस्यैकं च न विद्यते । तद्-गृहे भोजनं त्याज्यं भाण्डभाजनमादिकम् ॥ १०४ वंशे जातं स्वजातीयं दर्शनाचारवजितम् । तद्-भाण्डं तद्-गृहे भोज्यं वजितं हि जिनागमे ॥ १०६ भ्रष्टा हि दर्शन भ्रष्टाचारित्रादपि च ध्रुवम् । पूर्वे दीर्घाः परे ह्रस्वा उभे संसारिणः स्मृताः ॥ १०७ आचारो हि दुराचारो जिनाचारेण वर्जितः । अनाचारि-गृहे भुक्तं भुक्त्वा कल्याणमाचरेत् ॥ १०८ द्यूतं मद्यं पलं वेश्या व्यसनं पापद्धसेवनम् । तस्करत्वं परस्त्री च त्यक्त्वा जीवो सुखी भवेत् ॥१०९ नलो युधिष्ठिरो भोमो अन्येऽपि बहवो जनाः । द्यूतकर्मप्रसादेन राज्यभ्रष्टा वने गताः ॥११० अनृतं कलहः क्रोधो बन्धनं मानभञ्जनम् । नासिकाश्रवणच्छेदा द्यूते दोषाः प्रकीर्तिताः ॥ १११ ९९|| गोरस - मिश्रित द्विदल और दो दिनका वासी पीयूष (छांछ) जिनभक्त जैनको और विशेष - रूपसे दर्शनिक श्रावकको छोड़ना ही चाहिए ॥१००॥ हे राजन्, नवनीतका भक्षण सर्वथा अयोग्य है, दो दिन से परे मथित दही (छांछ ) तथा मद्य और शीतल (वासी) अन्नका खाना भी योग्य नहीं है ॥ १०१ ॥ उष्ण जलसे रहित चावलोंका मांड पका हुआ मतीश (तरबूज ) और सौपीरका नियमसे त्याग करना चाहिए || १०२|| भव्यजीवोंको स्वाद भ्रष्ट घी, दूध, गुड़, तेल, दही और धान्य आदि नहीं खाना चाहिए ॥१०३॥ लोहा, लाख, विष, शस्त्र, मधु, आयुध और जीवघातक जितने पदार्थ हैं, उन सबको नहीं बेचना चाहिए || १०४ || जिस गृहस्थके एक दर्शन प्रतिमाका भी आंचरण नहीं है, उसके घरमें भोजन नहीं करना चाहिए, तथा उसके भोजन बनाने के पात्र वर्तन आदि भी काम में नहीं लेना चाहिए || १०५ || जो अपने वंशमें भी उत्पन्न हुआ हो, अपनी जातिका भी हो, किन्तु यदि वह दर्शनप्रतिमाके आचारसे रहित है तो उसके घरकी कोई भी भोज्य वस्तु और भाजन ग्रहण करना जिनागम में वर्जित कहो है || १०६ || सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट जीवोंको चारित्र भ्रष्टसे भी अधिक भ्रष्ट कहा गया है। दर्शनभ्रष्टजीव दीर्घसंसारी और चारित्रभ्रष्ट जीव अल्पसंसारी माने गये हैं || १०७॥ जैन आचारसे रहित जितना भी आचार है, वह सब दुराचार माना गया है । अनाचारीके घर में यदि भूलसे भोजन कर लिया जाय तो खानेके पश्चात् ज्ञात होते ही कल्याण नामक प्रायश्चित्त ग्रहण करे || १०८ || भावार्थ - एक दिन रस-रहित भोजन करना, एक दिन केवल पूर्वाधं भोजन, अर्थात् कनोदर करना, एक दिन आचाम्ल अर्थात् एक अनका भोजन, एक दिन एक स्थान अर्थात् एकाशन और एक उपवास इन पाँचको क्रमशः पाँच दिन तक करना कल्याण नामका प्रायश्चित्त कहलाता है। जैसा कि छेदशास्त्रमें कहा है-आयंबिल जिव्वियडी पुरिमंडल मेयठाणं खमणाणि । एयं खलु कल्लाणं । जुआ खेलना, मदिरा पोना, मांस खाना, वेश्या गमन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना इन सात व्यसनोंको त्यागकर मनुष्यको सुखी होना चाहिए || १०९ ॥ जुआ खेलने के प्रसादसे, राजा नल, युधिष्ठिर, भीम एवं अन्य बहुतसे मनुष्यों को राज्यसे भ्रष्ट होकर वन में जाना पड़ा ॥ ११० ॥ मिथ्या भाषण कलह, क्रोध, बन्धन, मान-खण्डन, नासिकाछेदन, कर्ण -छेदन आदि अनेक दोष जुआ खेलनेमें कहे गये हैं ॥ १११ ॥ जुआ खेलने में और मद्य ४८ Jain Education International .... **** ३७७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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