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________________ लाटीसंहिता आज्ञा सर्वविदः सैव क्रियावान् श्रावको मतः । कश्चित्सर्वनिकृष्टोऽपि न त्यजेत्स कुलक्रियाः ॥४२ उक्तेषु वक्ष्यमाणेषु दर्शनिकव्रतेषु च । सन्देहो नैव कर्तव्यः कर्तव्यो व्रतसंग्रहः ॥५० प्रसिद्धं सर्वलोकेऽस्मिन् निशायां दीपसन्निधौ । पतङ्गादि पतत्येव प्राणिजातं सात्मकम् ॥५१ म्रियन्ते जन्तवस्तत्र झम्पापातासमक्षातः । तत्कलेवरसम्मिकं तत्कुतः स्यादनामिषम् ॥५२ युक्तायुक्तविचारोऽपि नास्ति वा निशि भोजने । मक्षिका नेक्ष्यते सम्यक का कथा मशकस्य तु ॥५३ तस्मात्संयमवृद्धयर्थं निशायां भोजनं त्यजेत् । शक्तितस्तच्चतुष्कं स्यादन्नाद्यन्यतमादि वा ॥५४ यत्रोषितं न भक्ष्यं स्यादन्नादि पलदोषतः । आसवारिष्टसन्धानाथानादीनां कथाऽत्र का ॥५५ रूपगन्धरसस्पर्शाच्चलितं नैव भक्षायेत् । अवश्यं त्रसजीवानां निकोतानां समाश्रयात् ॥५६ सम्यग्दर्शन धारण करनेका भी पक्ष किस प्रकार कहा जा सकता है ? दूसरी बात यह है कि यदि रात्रि भोजन त्यागरूप कुलक्रियाका पालन न किया जायगा तो फिर सर्वज्ञदेवकी आज्ञाका लोप करना समझा जायगा। क्योंकि सर्वज्ञदेवने रात्रि भोजनका त्याग कुलाचारमें बतलाया है और बिना इस कुलाचारके सम्यग्दर्शन हो नहीं सकता इसलिए रात्रि भोजनका त्याग न करना कुलाचारका पालन नहीं करना है और कुलाचारका पालन न करना सर्वज्ञदेवकी आज्ञाका लोप करना है तथा जब सर्वज्ञदेवकी आज्ञाका लोप ही हो जायगा तो फिर उसका पाक्षिकपना भी किस प्रकार ठहर सकेगा ॥४७-४८|| क्योंकि भगवान् सर्वज्ञदेवकी यही आज्ञा है कि जो क्रियावान हैकुलक्रियाका पालन करता है वही श्रावक माना जाता है। जो सबसे निकृष्ट श्रावक है उसको भी अपनी कुलक्रियायें कभी नहीं छोड़नी चाहिये । अतएव मांस त्याग करनेवाले पाक्षिक श्रावक को रात्रि भोजनका त्याग अवश्य कर देना चाहिए ॥४९॥ बहुत कहाँतक कहा जाय इस दर्शन प्रतिमाके वर्णनमें जो कुछ पहले कह चुके हैं और जो कुछ आगे कहेंगे उसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं करना चाहिए। सभी सन्देहोंको छोड़कर केवल व्रतोंका संग्रह करना चाहिए ॥५०॥ यह बात समस्त संसार में प्रसिद्ध है कि रात्रिमें दीपकके सहारे पतंगा आदि अनेक त्रस जीवोंका समुदाय आ जाता है ॥५१।। वह त्रस जीवोंका समुदाय जरा सी हवाका झकोरा लगने मात्रसे ही अपने देखते-देखते मर जाता है तथा उनका कलेवर उड़-उड़कर सब भोजनमें मिल जाता है। (कुछ जीव तो जीवित ही भोजनमें पड़कर मर जाते हैं और फिर वे उसमेंसे अलग नहीं किये जा सकते तथा कुछ मरे हुए भी उड़-उड़कर भोजनमें मिल जाते हैं ।) ऐसी हालतमें रात्रि भोजनके त्याग न करनेवालोंके मांसका त्याग कैसे हो सकता है ? ॥५२॥ दूसरी बात यह है कि रात्रिमें भोजन करने में योग्य और अयोग्यका विचार भी नहीं रहता है। अरे जहाँपर अच्छी तरह मक्खी भी दिखाई न पड़े फिर भला उस रात्रि में मच्छर आदि छोटे जीव तो किस प्रकार दिखाई दे सकते हैं ? ॥५३॥ इसलिए संयमको वृद्धिके लिए रात्रि भोजनका त्याग अवश्य कर देना चाहिए। यदि अपनी शक्ति हो तो चारों प्रकारके आहारका त्याग कर देना चाहिए। यदि अपनी इतनी शक्ति न हो तो अन्न पानादिक चारों प्रकारके आहारोंमेंसे अन्न आदि किसी एक प्रकारके अथवा दो प्रकारके या तीन प्रकारके आहारोंका त्याग कर देना चाहिए ॥५४॥ जहाँपर मांस भक्षणके दोषसे बासी भोजनके (एक या दो दिन पहले बनाये हुए भोजनके) भक्षण करनेका भी त्याग है वहांपर आसव अरिष्ट संधान अथाना आदिको तो बात हो क्या है ॥५५॥ इसी प्रकार जो पदार्थ रूप, रस, गन्ध, स्पर्शसे चलायमान हो जाते हैं, जिनका रूप बिगड़ जाता है, रस बिगड़ जाता हैचलित हो जाता है, गन्ध बदल जाती है, स्पर्श बिगड़ जाता है ऐसे चलित पदार्थोंको भी कभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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