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________________ श्रावकाचार-संग्रह अष्टमूलगुणोपेतो छूतादिव्यसनोज्झितः । नरो दर्शनिक. प्रोक्तः स्याच्चेत्सद्दर्शनान्वितः ॥६ मचं मांसं तथा क्षौद्रमथोदुम्बरपञ्चकम् । वर्जयेच्छावको धीमान् केवलं कुलधर्मवित् ॥७ ननु साक्षान्मकारादित्रयं जैनो न भक्षयेत् । तस्य किं वर्जनं न स्यादसिद्धं सिद्धसाधनात् ॥८ मैवं यस्मादतीचाराः सन्ति तत्रापि केचन । अनावारसमाः नूनं त्याज्या धर्माथिभिः स्फुटम् ॥९ तभेदा बहवः सन्ति मादृशां वागगोचराः । तथापि व्यवहारार्थ निर्दिष्टाः केचिदन्वयात् ॥१० चर्मभाण्डे तु निक्षिप्ताः घृततैलजलादयः । त्याज्याः यतस्त्रसादीनां शरीरपिशिताश्रिताः ॥११ न चाशक्यं पुनस्तत्र सन्ति यद्वा न सन्ति ते । संशयोऽनुपलब्धित्वाद् दुर्वारो व्योमचित्रवत् ॥१२ सर्व सर्वज्ञज्ञानेन दृष्टं विश्वकचक्षुषा । तदाज्ञया प्रमाणेन माननीयं मनीषिभिः ॥१३ नोह्यमेतावता पापं स्याद्वा न स्यादतीन्द्रियात् । अंहो मांसाशिनोऽवश्यं प्रोक्तं जैनागमे यतः ॥१४ तदेवं वक्ष्यमाणेषु सूत्रेषूदितसूत्रवत् । संशयो नैव कर्तव्यः शासनं जैनमिच्छता ॥१५ जो जीव सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाला हो और फिर वह यदि आठों मूलगुणोंको धारण कर ले तथा जुआ, चोरी आदि सातों व्यसनोंका त्याग कर दे तो वह दर्शन प्रतिमाको धारण करनेवाला कहलाता है ॥६॥ केवल अपने कुलधर्मको जाननेवाले बुद्धिमान् श्रावकको मद्य, मांस, शहद और पांचों उदुम्बरोंका त्याग कर देना चाहिए ॥७॥ कदाचित् यहाँपर कोई यह शंका करे कि कोई भी जैनी मद्य मांस शहदको साक्षात् भक्षण नहीं करता, इसलिए क्या जैनी मात्रके उनका त्याग नहीं हुआ ? अवश्य हुआ । इसलिए सिद्ध साधन होनेसे आपके त्याग करानेका उपदेश असिद्ध है। परन्तु यह बात नहीं है क्योंकि यद्यपि जैनी इनका साक्षात् भक्षण नहीं करते हैं, तथापि उनके कितने ही अतिचार हैं और वे अतिचार अनाचारोंके समान हैं इसलिए धर्मात्मा जीवोंको उन अतिचारोंका त्याग भी अवश्य कर देना चाहिए ॥८-९।। उन अतिचारोंके बहुत-से भेद हैं जो मेरे समान पुरुषसे कहे भी नहीं जा सकते तथापि केवल व्यवहारके लिए गुरुओं की आम्नायपूर्वक चले आये कुछ भेद कहे जाते हैं ॥१०॥ चमड़ेके बर्तनमें रक्खे हुए घी तेल पानी आदिका त्याग कर देना चाहिए क्योंकि चमड़ेके बर्तनमें रखे घी तेल आदिमें त्रस जीवोंके शरीरके मांसके आश्रित रहनेवाले जीव अवश्य रहते हैं ॥११॥ चमड़ेके बर्तनमें रक्खे हुए तेल घी जल आदिमें जिस पशुका वह चमड़ा है उस पशुके मांसके आश्रित रहनेवाले जीव हैं या नहीं ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए। यहाँपर कदाचित् यहाँ कोई यह कहे कि जिस प्रकार पूर्ण आकाशका चित्र दिखाई नहीं पड़ता इसलिए वह कोई पदार्थ नहीं है इसी प्रकार चमड़ेके बर्तनमें रक्खे हुए तेल घी आदिमें जिस पशुका वह चमड़ा है उस पशुके मांसके आश्रित रहनेवाले जीव दिखाई नहीं पड़ते इसलिए उसमें जीव हैं या नहीं इस शंकाका दूर होना अत्यन्त कठिन है ॥१२।। परन्तु इसका उत्तर यह है कि भगवान् अरहन्तदेवने अपने सर्वज्ञ ज्ञानसे समस्त सूक्ष्म पदार्थ भी प्रत्यक्ष देख और जान लिए हैं और गुरु परम्परापूर्वक उनके उपदेशके अनुसार आचार्योने वैसा ही शास्त्रोंमें निरूपण किया है इसलिए बुद्धिमानोंको भगवान् सर्वज्ञदेवकी आज्ञा मानकर प्रमाणरूपसे सब मान लेना चाहिए ॥१३॥ जो जीव इन्द्रियगोचर नहीं होते ऐसे सूक्ष्म अतीन्द्रिय जीवोंके भक्षण करनेसे पाप होता है या नहों ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि मांसभक्षण करनेवालोंको पाप अवश्य होता है ऐसा जैन शास्त्रों में स्पष्टरूपसे बतलाया है ।।१४।। इसलिए सर्वज्ञ वीतराग भगवान् अरहन्तदेवके कहे हुए जैन शासनको धारण करनेकी इच्छा करनेवालोंको जो सूत्र पहले कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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