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________________ लाटीसंहिता प्रथम सर्ग अहिंसा परमो धर्मः स्यादधर्मस्तदत्ययात् । सिद्धान्तः सर्वतन्त्रोऽयं तद्विशेषोऽषुनोच्यते ॥ १ सर्वसावद्ययोगस्य निवृतिअंतमुच्यते । यो मृषादिपरित्यागः सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ॥ २ तवतं सर्वतः कर्तुं मुनिरेव क्षमो महान् । तस्यैव मोक्षमार्गश्च भावी नान्यस्य जातुचित् ॥३ अतः सर्वात्मना सम्यक् कर्तव्यं तद्धि घोघनैः । कृच्छ्रलब्धे नरत्वेऽस्मिन् सुक बिन्दकोपमे ॥४ तत्रालसो जनः कश्चित्कषायभरगौरवात् । असमर्थस्तथाप्येष गृहस्थव्रतमाचरेत् ॥५ उक्तं च गुण वय तव सम पडिमा दाणं च अणत्थिमियं । दंसणणाणचरितं किरिया तेवण्ण सावयाणं च ॥१ तथा चोक्तम् दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभते य । बम्भारम्भ परिग्गह अणुमणमुद्दिट्ट वेसविरदो य २ इस संसार में अहिंसा ही परम धर्म है और उस अहिंसा धर्मका उल्लंघन करना या विनाश करना ही अधर्म है । यह सिद्धान्त सर्वतन्त्र है - अर्थात् सर्वसिद्धान्त सम्मत है । अब आगे इसी अहिंसा धर्मका विशेष वर्णन करते हैं ||१|| पाप सहित समस्त योगोंका त्याग करना व्रत कहलाता है तथा झूठ बोलनेका त्याग करना, चोरीका त्याग करना, आदि अलग-अलग पापोंका त्याग करना बतलाया है वह सब उसी व्रतका विस्तार समझना चाहिए ॥ २॥ उन व्रतका पूर्ण रीति से पालन करने के लिए मुनिराज ही समर्थ होते हैं और इसीलिए उन मुनिराजोंको ही मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है ||३|| जिस प्रकार कमल पत्रपर जलकी बूँदका ठहरना अत्यन्त कठिन है उसी प्रकार इस मनुष्य जन्मका प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। इसलिए ऐसे दुर्लभ मनुष्य जन्मको पाकर पापरूप योगोंका त्याग अवश्य कर देना चाहिए ||४|| कदाचित् तीव्र कषायोंके उदयसे कोई मनुष्य उन व्रतों को पूर्णरूपसे पालन करने में आलस्य करे अथवा असमर्थ हो तो उसे एकदेशरूप गृहस्थोंका व्रत अवश्य पालन करना चाहिए ||५|| कहा भी है-आठ मूलगुण, बारह व्रत, बारह प्रकारका तप, एक समता, ग्यारह प्रतिमा, चार प्रकारका दान, एक पानी छानकर काममें लाना, एक रात्रिभोजनका त्यागं करना और रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों रत्नोंको धारण करना ये तिरेपन श्रावकों की क्रिया कहलाती हैं ||१|| ग्रन्थकारोंने श्रावकोंके व्रत इस प्रकार भी कहे हैं—दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध ( प्रोषधोपवास), सचित्त त्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतत्याग, और उद्दिष्टत्याग इन ग्यारह प्रतिमाओंको पालन करनेवाला देश - विरत श्रावक कहलाता है ||२|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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