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________________ ३०९ श्रावकाचार-सारोबार दर्शनज्ञानचारित्रसक्तचित्तेषु साधुषु । ब्याजवजितबुद्धघा यो विनयः स्याविहावरः ॥५२५ आचार्यपाठकादिषु दशप्रकारेषु रोगहरणादि। सुविशुद्धकर्मणा यो विधिरमला व्यावृतिः सोक्ता ॥५२६ देवे दोषविनिर्मुक्त विरोधरहिते श्रुते । गुरौ नैर्ग्रन्थ्यमापन्नेऽनुरागो भक्तिरिष्यते ॥५२७ भक्तिप्रह्वतया पञ्चपरमेष्ठिगुणावलेः । श्रुतिः शश्वत्सुधागर्भा चाटूक्तिर्गदिता बुधैः ॥५२८ पुलाकादिस्फुरद्धेदभिन्ने दिग्वाससां गणे । सद्धर्मदेशके पूजा सत्कृतिः कृतिभिर्मता ॥५२९ जाने तपसि पूजायां यतीनां यस्त्वसूयति । स्वर्गापवर्गभूलक्षमी नूनं तस्याप्यसूयति ॥५३० विद्याभिर्द्रविणैः स्वेन परेणापररक्षणम् । यत्सा चोपकृतिः प्रोक्ता परोपकरणाथिभिः ।।५३१ एवमन्येऽपि बहवो भेदा ज्ञेयाः । महापद्मसुतो विष्णुर्मुनीनां हास्तिने पुरे। बलिद्विजकृतं विघ्नं शमयामास वत्सलम् ॥५३२ अस्य कथा- उज्जयिन्यां महीपालो वैरिकालो महाबलः । श्रीवर्मा प्रोल्लसच्छमसक्रियः श्रीमतीप्रियः ॥५३३ चत्वारो मन्त्रिणस्तस्य नीतिरीतिविदो बलिः । ब्रहस्पतिश्च नमुचिः प्रहलाद इति विश्रुताः ॥५३४ संयतैः संयमोपेतैरथ सप्तशतप्रमैः । सहितोऽकम्पनाचार्यस्तत्पुरोद्यानमागतः॥५३५ वक्तव्यं नात्र केनापि समायाते महीपतौ । गुरुस्तं निरघं संघमिति वारयति स्म सः ॥५३६ - - ॥५२४॥ सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्रमें संलग्न चित्तवाले साधु जनोंमें छल-रहित बुद्धिसे जो विनय किया जाता है, उसे आदर कहते हैं ॥५२५॥ आचार्य, उपाध्याय आदि दश प्रकारके साधुओंमें उत्तम विशुद्ध भावनाके साथ रोगको दूर करने रूप निर्मल सेवा विधि की जाती है, वह व्यावृत्ति या वैयावृत्ति कही जाती है ।।५२६।। दोषोंसे रहित देवमें, पूर्वापरविरोध रहित शास्त्रमें और निर्ग्रन्थताको प्राप्त गुरुमें जो अनुराग किया जाता है, वह भक्ति कहलाती है ॥५२७॥ भक्तिसे युक्त होकर पंच-परमेष्ठीकी गुणावलीका निरन्तर अमृतगर्भा वाणीसे उच्चारण करनेको ज्ञानी जनोंने चाटुक्ति कहा है ।।५२८।। पुलाक, बकुश आदि अनेक भेद वाले दिगम्बर सद्-धर्मके उपदेशक साधुओंके समुदायमें जो पूजा की जातो है, उसे सत्कृति या सत्कार कृति जनोंने कहा है ॥५२९॥ जो पुरुष साधुजनकी पूजामें, ज्ञानमें और तपमें ईर्ष्या करता है, उसके प्रति नियमसे स्वर्ग लक्ष्मी और मुक्ति लक्ष्मी भी ईर्ष्या करती है ॥५३०।। विद्यासे, धनसे स्वयं और दूसरेके द्वारा जो दूसरेका संरक्षण किया जाता है उसे परोपकार करनेके इच्छुक जनोंने उपकृति या उपकार कहा है ॥५३१॥ ये और इसी प्रकारके अन्य भी बहुतसे भेद वात्सल्यके जानना चाहिए। कहा भी है~महापद्म राजाके पुत्र विष्णु कुमार मुनिने हस्तिनापुरमें बलि ब्राह्मण-द्वारा किये गये मुनियोंके विघ्न-हउपसर्गको शान्त किया था, वह उनका वात्सल्य था ॥५३२॥ __ इसकी कथा इस प्रकार है-उज्जयिनी नगरीमें वैरियोंके लिए कालस्वरूप, उल्लास पूर्वक सद्-धर्म और सुखकी सत्-क्रियाओंका करने वाला महाबली श्रीवर्मा नामक राजा था, उसकी रानीका नाम श्रीमती था ॥५३३।। उसके नीतिशास्त्रके वेत्ता बली, बृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद इन नामोंसे प्रसिद्ध चार मंत्री थे ॥५३॥ किसी समय संयमके धारक सात साधुओंके साथ श्री अकम्पनाचार्य उस नगरी के बाहिरी उद्यान में आये ॥५३५।। आचार्यने सर्वनिष्पाप संघको यह आज्ञा दी कि 'राजाके यहाँ आनेपर कोई भी कुछ नहीं बोले' । इस प्रकारसे सबको बोलनेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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