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________________ ३.८ श्रावकाचार-संग्रह श्रुत्वेति निबिड़ब्रीडाजटिल: स लघुर्मुनिः । अभ्युत्थाय गुरोः स्वस्य ननाम चरणद्वयम् ॥५१३ ईदृशों सम्पदं त्यक्त्वा ये कुर्वन्त्यमलं तपः । त्वादृशास्तेऽत्र संसारे द्वित्राः स्युर्यदि पञ्चषाः ॥५१४ त्वया द्वादश वर्षाणि कुर्वता निर्मलं तपः । विहिता निर्जरा नूनं कर्मणां ध्वस्तशर्मणाम् ॥५१५ मया द्वादश वर्षाणि चक्षुकाणां स्ववल्लभाम् । ध्यायता निविडं पापजितं भवकारणम् ॥५१६ एकत्रापि पदे तिष्ठन् वीतरागो विमुच्यते । दुःसाध्यैः कर्मसङ्घात रागयुक्तो हि वेष्टयते ॥५१७ सिद्धान्तसूचितं प्रायश्चित्तं चित्तस्य शोधनम् । अथ दत्त्वा मुनीशानः शिष्यमित्थमवोचत ॥५१८ अनादिवासनालीनकर्मणां पारवश्यतः । क्वचिद् विज्ञाततत्त्वोऽपि विक्रियां तनुते मुनिः ॥५१९ मया द्वादश वर्षाणि विहितं समलं तपः । इत्यार्तध्यानमत्यन्तं मास्म कार्षीः कृपापर ॥५२० इत्थं स्थिरीकरणमस्य जिनेन्द्रदीक्षात्यागोद्यतस्य यतिनो विधिना विधाय। चिपचिन्तनचणो मुनिवारिषेणो निःसीमवृक्षगहनं स वनं जगाम ॥५२१ इति स्थितीकरणाङ्गे वारिषेणकथा॥६॥ साधूनां साधुवृत्तीनां सागाराणां सर्मिणाम् । प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं तज्जैर्वात्सल्यमुच्यते ॥५२२ समिषु सदा भक्तो विरक्तो भववासतः । सुधास्यन्दिवचो जल्पन् भव्यो वात्सल्यभाग भवेत् ॥५२३ बादरो व्यावतिभक्तिश्चाटूक्तिः सत्कृतिस्तथा । साधुषूपकृतिः श्रेयोऽथिभिर्वात्सल्यमुच्यते ॥५२४ ॥५१२॥ अपने गुरुके ये वचन सुनकर उस लघु मुनि पुष्पडालने उठकर और अति लज्जासे युक्त होकर अपने गुरुके दोनों चरणोंमें नमस्कार किया ॥५१३।। वह कहने लगा-ऐसी सम्पदाको छोड़कर जो वनमें जाकर निर्मल तप करते हैं, वे इस सारे संसारमें दो-तीन या पांच-छह व्यक्ति ही होंगे ॥५१४॥ हे स्वामिन्, आपने बारह वर्ष तक निर्मल तप करते हुए सुखके विनाशक कर्मोंकी निश्चयसे भरपूर निर्जरा की है ॥५१५।। किन्तु मैंने बारह वर्ष तक अपनी आँखसे कानी प्राणवल्लभाका चिन्तवन करते हुए संसारका कारणभूत सघन पापकर्म उपार्जन किया है ॥५१६॥ एक ही पदपर रहते हुए वीतरागी पुरुष दुःसाध्य कर्मोंके समूहसे विमुक्त हो जाता है और रागयुक्त जीव दुःसाध्य कर्मसमूहसे वेष्टित हो जाता है ॥५१७॥ इसके पश्चात् वारिषेण मुनिराजने आगममें कहे गये पापके शोधन करनेवाले प्रायचित्तको देकर अपने शिष्यसे इस प्रकार कहा-||५१८॥ अनादि कालिक वासनासे संचित कर्मोंकी परवशतासे तत्त्वोंका ज्ञाता भी मुनि कहीं पर विकारको प्राप्त हो जाता है ।।५१९|| 'मैंने बारह वर्ष तक मलिन तपको किया है' इस प्रकारका अतिं दुःख-दायी आर्तध्यान हे दया-तत्पर साधो, अपने मनमें मत कर ॥५२०॥ इस प्रकार जिनेन्द्र दीक्षाको छोड़नेके लिए उद्यत पुष्पडाल मुनिका विधिपूर्वक स्थिरीकरण करके आत्माके चैतन्य स्वरूपके चिन्तन करनेमें प्रवीण वे वारिषेण मुनि असोम वृक्षोंसे गहन वनमें चले गये ॥५२१॥ यह स्थितीकरण अंगमें वारिषेण मुनिकी कथा है ॥६॥ साधुओं और उत्तम आचरण करनेवाले साधर्मीगृहस्थोंके यथा योग्य आदर-सत्कार करने को ज्ञानी पुरुषोंने वात्सल्य कहा है ।।५२२।। जो साधर्मी भाइयों पर सदा भक्ति रखता हैं, संसारवाससे विरक्त है और अमृत बहाने वाले वचन बोलता है, वह भव्य पुरुष वात्सल्य गुणका धारक है ॥५२३॥ कल्याणके अभिलाषी जनोंने आदर करनेको, वैयावृत्य करनेको, भक्ति करनेको, चाटु (प्रिय) वचन बोलनेको, सत्कार करनेको, तथा साधुजनोंके उपकार करनेको वात्सल्य कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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