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श्रावकाचार-संग्रह मदादेशादयं ब्रह्मचार्योदार्यविशारदः । आनोतवान् लसत्कान्तिक्रान्तदिङमण्डलं मणिम् ॥४३६ न स्फारसुतपोभारनिष्ठचौर्यरतो भवेत् । न हि न्यायविदा (?) नाथ क्वाप्यनीतित्वमाश्रयेत् ॥४३७ इत्थं वणिक्पतेर्वाक्यं श्रुत्वा श्रवणपेशलम् । जग्मुस्ते नगरस्फाररक्षादक्षा निजं पदम् ॥४३८ ततः कपटवेषाढ्यादेतस्मादिबम्बमद्धतम । गहीत्वा सत्त्वसन्तानरक्षादक्षो वचोऽवदत ॥४३९ मायामादृत्य येनायं जनः शुद्धः प्रतार्यते । स गत्वा नरके घोरे दुःखमाप्नोति सन्ततम् ॥४४० यो लोकं तापयत्यत्र दुश्चरित्रकलङ्कितः । स भास्कर इवाभ्येति पापखानिरधोगतिम् ॥४४१ स्वकृतेनैव पापेन त्वं क्षयं यास्यसि ध्रुवम् । इत्युक्त्वाऽसौ निजावासात्तस्करं निरवासयत् ॥४४२
इत्युपगहनाङ्गे जिनेन्द्रभक्तश्रेष्ठीकथा ॥५॥ दर्शनज्ञानचारित्रत्रयाद भ्रष्टस्य जन्मिनः । प्रत्यवस्थापन तज्ज्ञाः स्थिरीकरणमचिरे ॥४४३ कामक्रोधमदोन्मादप्रमादेषु विहारिणः । आत्मनोऽन्यस्य वा कार्य सुस्थितीकरणं बुधैः ॥४४४
रागोन्मादमदप्रमादमदनक्रोधादिभिः शत्रुभिरिं वारमपारशीलशिखरात्संचाल्यमानं परम् । आत्मानं न करोति नो यदि नरः स्थयां समाशावशः
संसारं बहदुःखजालजटिलां दूरं तदा वर्धयेत् ॥४४५ ज्येष्ठां गर्भवतीमार्यामुपचर्य सुचेलना । अतिष्ठिपत् पुनः शुद्ध व्रते सम्यक्त्वलोचना ॥४४६
प्रकाशमान कान्तिसे दिग्मंडलको व्याप्त करनेवाले इस मणि बिम्बको लाया है ॥४३५-४३६।। परम उज्ज्वल तपश्चरण करनेमें कुशल यह चोरी करने में संलग्न नहीं है । हे नाथ, न्यायका वेत्ता मनुष्य कहीं पर भी अनीतिका आश्रय नहीं करते हैं ॥४३७|| इस प्रकार कर्ण-सुखदायी सेठके वचन सुनकर नगरकी अच्छी रीतिसे रक्षा करने में दक्ष वे लोग अपने स्थानको चले गये ।।४३८॥
तदनन्तर उस कपटवेषी क्षुल्लकसे इस अद्भत रत्नबिम्बको लेकर प्राणियोंकी सन्तानकी रक्षा करने में दक्ष सेठ उससे यह वचन बोला--मायाँचार करके जिसके द्वारा शुद्धजन ठगाये जाते हैं, अर्थात् जो सोधे-साधे लोगोंको ठगता है, वह नरकमें जाकर चिरकाल तक घोर दुःखोंको भोगता है ॥४३९-४४०।। जो दुश्चरित्रसे कलंकित मनुष्य इस लोकमें दूसरे लोगोंको सन्तापित करता है, पापोंकी खानिवाला वह मनुष्य सूर्यके समान अधोगतिको प्राप्त होता है ।।४४१॥ 'अपने द्वारा किये पापसे तुम निश्चयसे विनाशको प्राप्त होओग', ऐसा कहकर उस सेठने अपने आवाससे उस चोरको निकाल दिया ॥४४२।।
यह उपगूहन अंगमें निनेन्द्रभक्त सेठकी कथा है ।।५।।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रसे भ्रष्ट हुए मनुष्यको उनमें पुनः अवस्थित करनेको ज्ञानीजन स्थितीकरण कहते हैं ।।४४३।। काम, क्रोध, मद, उन्माद और प्रमादमें विचरण करनेवाले अपने आपका, अथवा दूसरेका उत्तम प्रकारसे स्थितीकरण ज्ञानियोंको करना चाहिए ।।४४४।। राग, उन्माद, मद, प्रमाद, काम-विकार और क्रोधादि शत्रुओंके द्वारा अपार उन्नत शीलके शिखर से बार-वार चलायमान होनेबाले दूसरेको, या अपने आपको जो मनुष्य किसी आशाके वश होकर स्थिर नहीं करता है, वह भारी दुःख जालसे जटिल इस संसारको बहुत दूर तक बढ़ाता है, अर्थात् दीर्घसंसारी बनता है ।।४४५।। देखो-गर्भवती ज्येष्ठा नामकी आर्यिकाका उपचार करके सम्यक्त्व लोचनवाली चेलना रानीने उसे पुन: शुद्धब्रतमें प्रतिष्ठापित किया ।।४४६।। उन-उन
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