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________________ श्रावकाचार-सारोद्धार ३०१ क्रमेण पर्यटन प्राप्तस्ताम्रलिप्ताभिधां पुरीम् । अमितप्रस्फुरदब्रह्मव्रतोदभूतप्रसिद्धिभाक ॥४२४ कर्णाणिकयाऽऽकर्ण्य जिनभक्तोऽपि भक्तिभाक् । गत्वा नत्वा च तं शीघ्रं निनाय निजमन्दिरम् ॥४२५ कायकान्तिविनिधूततमस्तोमं महोत्तमम् । बिम्बं पार्वजिनेन्द्रस्य क्षुल्लकस्तत्र दृष्टवान् ॥४२६ ममैकं वाञ्छितं सिद्धमित्यसौ चिन्तयन् व्रती। मानसे न ममौ हर्षादुद्वेल इव वारिधिः ॥४२७ कायक्लेशर्वणिक तस्य भक्तिनिष्ठोऽभवत्तरम् । पाखण्डिभिन के चात्र पण्डिता अपि खण्डिताः ॥४२८ बिम्बस्य रत्नवैडूर्यक्लृप्तस्य कुरु रक्षणम् । इत्थमाथतो भावी कथञ्चित्प्रतिपन्नवान् ।।४२९ देशान्तरं वणिग्-नाथः यियासुरयमन्यदा । पुराबहिविनिर्गत्य तस्थौ सेवकसंवृतः ॥४३० समस्तं तत्परीवारं कार्यव्यग्रं विचिन्त्य सः । अर्धरात्रे गृहीत्वाऽऽशु रत्नबिम्बं विनिर्गतः॥४३१ तत्तेजसा निशामध्ये कोट्टपालैंनिरीक्षितः । गृहोतुं च समारब्धः स व्रती कपटाञ्चितः ॥४३२ तेभ्यः पलायितुं भीरुरसमर्थत्वमुद्वहन् । श्रेष्ठिनं शरणं जातो रक्ष रक्षेति मां वदन् ॥४३३ ततः सम्यक्त्वशुद्धात्मा जिनदत्ताभिधो वणिक । एनं चौरं दुराचारतत्परं ज्ञातवान् ध्रुवम् ॥४३४ ततः स दर्शनस्फारकलङ्कध्वंसहेतवे । कृतकोलाहलान् कोपालानित्थमवोचत ॥४३५ नगर-ग्राम-देश, प्रान्तको क्षोभित (आश्चर्य-चकित) करने लगा ॥४२३।। इस प्रकार क्रम-क्रमसे अनेक स्थानोंपर परिभ्रमण करता और असीम स्फुरायमान ब्रह्मचर्यबत-जनित प्रसिद्धिको धारण करता हुआ वह चोर ताम्रलिप्त नामकी नगरीको प्राप्त हुआ ।।४२४॥ कानों-कान उसकी प्रसिद्धिको सुन करके भक्तिवाला वह जिनभक्त सेठ उसके पास जाकर और नमस्कार करके उसे अपने मन्दिरमें ले आया ॥४२५।। शरीरकी कान्तिसे अन्धकारके समूहको दूर करनेवाले महान श्रेष्ठ श्री पार्वजिनेन्द्रके बिम्बको उस क्षुल्लकने वहाँ पर देखा ॥४२६॥ प्रतिबिम्बको देखकर वह मायाचारी व्रती 'मेरा एकमात्र मनोरथ सिद्ध हो गया' यह विचारता हुआ मनमें हर्षसे फूला नहीं समाया । जैसे कि समुद्र चन्द्रको देखकर हर्षसे उद्वेलित हो जाता है ॥४२७।। जिनेन्द्रभक्त सेठ उसके कायक्लेशवाले तपोंके आचरणसे उसकी भक्तिमें और भी अधिक तत्पर हो गया। ग्रन्थकार कहते हैं कि पाखण्डियोंके द्वारा इस लोकमें कौन-कौनसे पण्डित खण्डित नहीं हुए ? अर्थात् सभी ठगाये गये हैं ।।४२८॥ जिनेन्द्रभक्त सेठने कहा-वैडूर्यरत्नसे निर्मित इस जिनप्रतिबिम्बको तुम रक्षा करो। इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर उस मायाचारी क्षुल्लकने किसी प्रकार बहुत आग्रह करनेपर उसकी प्रार्थनाको स्वीकार कर लिया ॥४२९।। । किसी एक दिन वह वैश्यनाथ जिनेन्द्रभक्त देशान्तरको जानेको इच्छासे सेवकोंसे घिरा हुआ नगरसे बाहिर निकलकर ठहर गया ॥४३०॥ वह मायाचारी क्षुल्लक समस्त परिवारको जानेको तयारीमें व्यग्र (लगा हुआ) देखकर अर्धरात्रिके समय उस रत्नबिम्बको लेकर सेठके घरसे शीघ्र निकला ॥४३१। मध्य रात्रिके समय उस रत्नबिम्बके तेजसे उसे भागते हुए कोटपालोंने देख लिया और उस कपटी व्रतीको पकड़नेके लिए वे लोग दौड़े ।।४३२।। भागनेमें अपनी असमर्थताको देखकर और उन कोटपालोंसे बचनेके लिए 'मेरी रक्षा कीजिए, मेरी रक्षा कीजिए', यह कहता हुआ वह सेठकी शरणमें पहुँचा ॥४३३।। तब सम्यक्त्वसे शुद्ध आत्मावाले उस जिनदत्त. सेठने दुराचारमें तत्पर इसे निश्चितरूपसे चोर जान लिया ||४३४॥ तब जैन दर्शन पर आते हुए भारी कलंकके विध्वंसके लिए वह सेठ कोलाहल करते (और उस क्षुल्लकका पीछा करके आते हुए) कोटपालोंसे इस प्रकार बोला-उदार गुणशाली यह ब्रह्मचारी मेरे आदेशसे ही अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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