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________________ श्रावकाचार - सारोद्धार पूजनं यज्जिनेन्द्राणां त्वन्नाम्ना विहितं मया । तेन ते भवताद्देवि घनवृजिनसंक्षयः ॥४०० सतीमतल्लिका देवि त्वमेवात्र महीतले । तवैवामूढदृष्टित्वं इलाघनीयं महात्मनाम् ॥४०१ इत्थं वरुणभूपाल भार्यामौदार्यशालिनीम् । संश्लाघ्य विविधैर्वाक्यैः क्षुल्लकः स्वपदं ययौ ॥४०२ अथ राज्ये लसत्कीतिं शिवकोतिं न्यवीविशत् । वरुणाख्यो महीपालो निर्वेदपदवीमितः ॥४०३ हुत्वा कल्मषकर्माणि सुतपोजातवेदसि । देवोऽभूद्वरुणो भूपः स्वर्गे माहेन्द्रसंज्ञिते ॥ ४०४ वैराग्यवानावीतस्वान्तशान्ता महासती । रेवत्यपि तपः कृत्वा ब्रह्मस्वर्गे सुरोऽभवत् ॥४०५ इति मूढदृष्टिरेवतीराज्ञीकथा ||४|| धर्मकर्म रते दैवात्प्राप्तदोषस्य जन्मिनः । वाच्यतागोपनं प्राहुरार्याः सदुपगूहनम् ॥ ४०६ धर्मोऽभिवर्धनीयोऽयं भावैस्तैर्मादवादिभिः । परस्य गोपनीयं च दूषणं स्वहितैषिणा ||४०७ निगूहति द्रुतं दोषान् परस्याप्यात्मनो गुणान् । प्रकाशयति न क्वापि स स्यात्सदुपगूहकः ॥४०८ जातं कथञ्चिदिह संयमिनामशेषं दोषं निगूहति न यः शमसंयमाद्यैः । धमं न बृंहयति तेन मनुष्यजन्म लब्ध्वापि दुर्लभमिदं किमसाधि साधु ॥ ४०९ नैर्मल्यं नभसोऽभितो मितरजः पूरान दूरीकृतं पाथोधेः खलु नक्रचक्रमरणाद् दुर्गन्धिता नो यथा । तैस्तैः कर्ममलिम्लुचैर्मलिनिमा सिद्धस्य नो जायते म्लानत्वं जिनशासनस्य न तथा नीचापराधैः क्वचित् ॥४१० २९९ है, उससे हे देवि, तेरे सघन पापोंका क्षय होवे ||४०० ॥ हे देवि, इस महीतलमें तू हो सतियोंमें शिरोमणि है और तेरा ही अमूढदृष्टिपना महात्माजनों के भी प्रशंसनीय है || ४०१ || इस प्रकार वरुणमहोपाल की रानी और उदार गुणशालिनी उस रेवतीकी नाना प्रकारके उत्तम वाक्योंके द्वारा प्रशंसा करके वह क्षुल्लक अपने स्थानको चला गया ॥ ४०२ ॥ अथानन्तर वरुणराजाने राज्यपर उत्तम कीर्तिवाले शिवकोर्तिको बिठाया और स्वयं वैराग्यकी पदवीको प्राप्त हुआ || ४०३|| तत्पश्चात् उत्तम तपरूप अग्निमें अपने पाप कर्मोंका हवन करके वरुण राजा माहेन्द्र नामके स्वर्ग में देव हुआ || ४०४|| वैराग्यवासना से वासित शान्त चित्तवाली वह महासती रेवती भी तप करके ब्रह्मस्वर्ग में देवरूपसे उत्पन्न हुई ||४०५ || यह अमूढ़ दृष्टिवाली रेवती रानीकी कथा है ॥४॥ धर्म-कार्य में संलग्न होनेपर भी दैववश दोषको प्राप्त हुए मनुष्य की निन्दाके गोपन करनेको आर्य पुरुष उत्तम उपगूहन अंग कहते हैं ॥ ४०६ | आत्म- हितैषी मनुष्यको उन-उन मार्दव सत्यादि धर्मोके द्वारा अपना धर्म बढ़ाना चाहिए और परका दूषण ढँकना चाहिए || ४०७ || जो मनुष्य दूसरोंके दोपोंको ढँकता है और अपने गुणोंको कहीं पर भी प्रकाशित नहीं करता है, वह निश्चयसे श्रेष्ठ उपगूहक कहा जाता है ||४०८|| यदि इस लोकमें कथंचित् कर्मोदयसे संयमी पुरुषोंके कोई दोष हो जाय तो उसे जो गोपन नहीं करता है, तथा शमभाव और संयम आदिके द्वारा उनके धर्मको बढ़ाता नहीं है तो उसने इस दुर्लभ मनुष्य जन्मको पाकरके भी अपना क्या आत्म-हित सावन किया ? अर्थात् कुछ भी नहीं किया ||४०९ || जैसे परिमित रजः पूरसे आकाशकी निर्मलता दूर नहीं हो जाती है, जैसे मगरमच्छ आदिके मरनेसे समुद्रके दुर्गन्धपना नहीं होता है और जैसे (सिद्ध लोक में भरी हुई भी) कर्ममल वाली उन-उन कार्मण वर्गणाओंके द्वारा सिद्ध जीवोंके मलि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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