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________________ २९८ श्रावकाचार-संग्रह वन्दनार्थं ततः साकं वरुणेन महीभृता । भव्यसेनादयः सर्वे समवसृतिमाययुः ॥ ३८६ श्रद्धालुभिर्नरैः पौरैः प्रेर्यमाणापि सादरम् । नागमद् रेवती राज्ञी सम्यक्त्वव्रतभूषिता ॥ ३८७ चतुविशतिरेवात्र सूत्रे तीर्थङ्कराः स्मृताः । तत्कुतस्त्योऽयमायातः पञ्चविंशतिमो जिनः ॥ ३८८ अतः प्रचण्डपाखण्डमण्डितः पापखण्डितः । प्रतारयितुमायातः कश्चिल्लोकान् प्रतारकः ॥ ३८९ जिनागमहतस्वान्तसंशयध्वान्तसन्ततिः । लोकैः सा प्रेर्यमाणापि नो मूढत्वमुपागमत् ॥ ३९० पाखण्डमण्डितैमुंडेर्बुद्धिमान् न प्रतार्यते । प्रसृत्वरतमस्तोगंः किं रविविगतप्रभः ॥ ३९१ अन्यस्मिन् दिवसे चर्यावेलायां रेवतीगृहे । जगाम क्षुल्लको व्याधिबाध्य मानकलेवरः ॥ ३९२ मायया प्रोच्छलन्मूर्च्छामूच्छितो न्यपतद् द्रुतम् । रेवतीसदनस्कारप्राङ्गणेऽसावणुव्रती ॥३९३ दृष्ट्वाऽथ भूपतेः पत्न्या यत्नेनोत्थापितः स्वयम् । जलार्द्रपवनैस्तैस्तैः कृतश्चायं सचेतनः ॥ ३९४ ततः पथ्यासनं तस्मै सा कृपालुरदापयत् । आकण्ठं भक्षयित्वाऽसावचच्छदंदणुव्रती ॥ ३९५ अपथ्यमन्नमेतस्मै मया दत्तमिति स्वकम् । निन्दती रेवती राज्ञी पश्चात्तापमुपागमत् ॥ ३९६ अपनीयातिदुर्गन्धं वान्तमनं ततः सती । कवोष्णं जलमानीय तद्देहाभिषवं दधे ॥ ३९७ तदावरोदयात्यन्तविकासितहृदम्बुजः । अपहृत्य व्रती मायां रेवतीमित्यवोचत ।। ३९८ विध्वस्तमोहनिद्रस्य गुप्ताचार्यस्य मे गुरोः । धर्मबुद्धयादिना स्वैरं शुभंयुर्भव वत्सले ॥ ३९९ तब वन्दना करने के लिए वरुणराजाके साथ सभी भव्यसेन आदिक समवशरणमें आये । उस समय श्रद्धायुक्त पुरवासी जनोंके द्वारा सादर प्रेरणा किये जाने पर भी सम्यक्त्व और श्रावकव्रतोंसे युक्त अकेली रेवतीरानी नहीं गई ।। ३८६-३८७ ।। वह बोली - जैनसूत्रोंमें ही इस भरत क्षेत्रमें चौबीस ही तीर्थंकर कहे गये हैं, फिर यह पचीसवां तीर्थंकर कहाँसे आ गया । इसलिए ऐसा ज्ञात होता है कि लोगोंको ठगनेके लिए प्रचण्ड पाखंडसे मंडित कोई पाखंडी आया है ॥३८८-३८९॥ जिनागमके अभ्याससे जिसके हृदयकी संशय रूप अन्धकारकी सन्तत्ति नष्ट हो गई है ऐसी वह रेवतो रानी लोगोंके द्वारा बार-बार प्रेरित किये जानेपर भी मूढ़ताको प्राप्त नहीं हुई || ३९० || पाखंडसे मंडित मूढजनोंके द्वारा बुद्धिमान मनुष्य नहीं ठगाया जा सकता है। फैलते हुए अन्धकार- जसे भी क्या कभी सूर्य हतप्रभ हुआ है ? नहीं हुआ ।। ३९१ ।। दूसरे दिन भिक्षा-चर्याक समय वह क्षुल्लक व्याधियों से बाधित शरीरवाला होकरके रेवतोके घर गया || ३९२|| मायासे बढ़ती हुई मूर्च्छाके द्वारा मूच्छित होकर वह क्षुल्लक रेवती रानीके भवनके विशाल आंगन में तेजीसे जा गिरा || ३९३|| यह देखकर राजाकी रानी रेवतीने यत्नके साथ उसे स्वयं उठाया और जलसे गीली पवनके द्वारा एवं अन्य शीतलोपचारोंसे उसे सचेतन किया ॥३९४॥ तत्पश्चात् उस दयामूर्ति रेवतीने उसे पथ्य भोजन कराया। उस अणुव्रती क्षुल्लकने कण्ठपर्यन्त भोजन करके पीछेसे वमन कर दिया || ३९५ || मैंने 'अपथ्य अन्न इसके लिए दिया है इस प्रकार अपनी निन्दा करती हुई रेवती रानी पश्चात्ताप करने लगी || ३९६ || तदनन्तर उसके द्वारा वमन किये गये उस दुर्गन्धित अन्नको उस सतीने कुछ गर्मजल लाकर के उसके शरीरको स्वच्छ किया || ३९७ || तब रानीके द्वारा किये गये इस आदर पूर्ण व्यवहारसे अत्यन्त विकसित हृदय कमलवाले उस व्रतीने अपनी मायाको दूर करके रेवतीसे इस प्रकार कहा - मोहनिद्राको विध्वस्त करनेवाले मेरे गुरु श्रीगुप्ताचार्यने धर्मवृद्धि तुम्हारे लिए कही है उससे हे धर्मवत्सले, तुम्हारा भरपूर कल्याण होवे ||३९८-३९९|| तेरे नामसे मैंने जो मार्गमें आते हुए जिनेन्द्रों का पूजन किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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