SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ श्रावकाचार-संग्रह तस्मै वात्सल्यकाङ्गाय नमस्कारोऽस्तु नित्यशः । येनोपकरणं दधे लोके विष्णुकुमारवत् ॥३३० तस्मै प्रभावनाङ्गाय नमस्कारोऽस्तु नित्यशः । येन प्रभावना नीता जैनी वजकुमारवत् ॥३३१ एवमष्टाङ्गसम्यक्त्वं पूजयन्ति त्रिधापि ये। तेषां निरञ्जनस्थानं जायते नात्र संशयः ॥३३२ यस्याक्षरज्ञानमथार्थलक्ष द्वयं तदेवास्ति मतिप्रगल्भा।। अनालसो वाऽध्ययनं च काले गुरोरलोपो नियमप्रसंगः ॥३३३ इत्यष्टकं तस्य फलप्रदं स्यात्सम्यक प्रबोधस्य शिवप्रदस्य। सम्यक् प्रवृत्तं हृदि यस्य वृत्तं मोक्षायनं तस्य भयेद्विशेषतः ॥३३४ अष्टाङ्गदर्शनं सम्यग यस्य चित्ते न विद्यते । ज्ञानं चारित्रसंयुक्तं जातं तस्य निरर्थकम् ॥३३५ पञ्चमहाव्रतयुक्तं त्रिगुप्तिगुप्तं च समितिसम्पन्नम् । सम्यग्दर्शनरहितं निरर्थकं जायते वृत्तम् ॥३३६ यथा राज्ञा विनाऽऽदेशो न राजति धरातले । तथा श्रद्धाविनिर्मुक्तो न वती भाति शासने ॥३३७ आहारौषधताम्बूलपानीयपरिवर्जनम् । चतुर्विधं हि संन्यासं यो धत्ते स वजेद्दिवम् ॥२३८ तत्रस्थो मुनिनायकस्य वचनैर्जानाति लोकत्रयों पाताले नरकस्य दःखमतुलं स्वर्गेऽमराणां सुखम् । द्वीपेऽर्घत्रितये जनाभिगमने पाथोधियुग्माङ्किते जीवानां दशपञ्चकर्मवसुधा-धर्मक्रियामक्रियाम् ॥३३९ धर्माधर्मविवक्षामवगच्छति पापपुण्यसन्नीताम् । सुखदुःखसंविभागां शुभाशुभप्रेरणप्रथिताम् ॥३४० स्वधर्ममें स्थित कराये जाते हैं ॥३२९॥ उस वात्सल्य अंगको मेरा नित्य नमस्कार हो, जिसके द्वारा विष्णुकुमार मुनिके समान लोकमें उपकार किया जाता हैं ॥३३०।। उस प्रभावना अंगके लिए मेरा नित्य नमस्कार हो, जिसके द्वारा वज्रकुमार मुनिके समान जैनधर्मको प्रभाबना की गई ॥३३१।। इस प्रकार अष्टाङ्ग सम्यक्त्वको जो मनुष्य त्रियोगसे पूजते हैं, वे निरंजन स्थानको प्राप्त होते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥३३२॥ जिसके आगमके अक्षरोंका ज्ञान है, जिसके अक्षर और अर्थ दोनोंका ज्ञान है, जिसके बुद्धिको अधिकता है, जिनके शास्त्रोंके पठन-पाठनमें आलस नहीं है, जो स्वाध्यायके कालमें अध्ययन करता है, गुरुके नामका लोप नहीं करता और जो निह्ववसे रहित है। ये आठ ज्ञानाचार जिसके हृदयमें नित्य शिवपद-दाता सम्यग्ज्ञान प्रकाशित है, उसको सुफल दाता हैं । इसी प्रकार जिसके हृदयमें सम्यक् प्रकारसे प्रवृत्त (आचारित) चारित्र है, उसका विशेष रूपसे मोक्षगमन होता है ॥३३३-३३४॥ जिसके चित्तमें अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शन विद्यमान नहीं है, उसका चारित्र-संयुक्त उत्पत्र हुआ ज्ञान निरर्थक है ॥३३५।। चारित्र पाँच महाव्रतोसे संयुक्त हो, तीन गुप्तियोंसे सुगुप्त भी हो और पांच समितियोंसे सम्पन्न भी हो, फिर भी यदि वह सम्यग्दर्शनसे रहित है तो वह निरर्थक होता है ॥३३६।। जैसे महीतलपर राजाके बिना उसका आदेश शोभा नहीं पाता है, उसी प्रकार जिनशासनमें श्रद्धानसे रहित व्रती पुरुष भी शोभा नहीं पाता है।।३३७॥ जो पुरुष आहार, औषध, ताम्बूल और पानीके त्याग रूप चार प्रकारका संन्यास धारण करता है, वह स्वर्ग जाता है ।।३३८।। उस स्वर्गमें रहता हुआ वह जिनेन्द्रदेवके वचनोंसे तीनों लोकोंको जानता है, पाताल लोकमें नरकके अतुल दुःखको और स्वर्ग लोकमें देवोंके सुखको जानता है, तथा मनुष्योंके गमन योग्य दो समुद्रोंसे युक्त अढ़ाई द्वीपमें, रहने वाले पन्द्रह कर्मभूमियोंके जीवोंकी धार्मिक क्रिया और अक्रियाकी, धर्म-अधर्मकी विवक्षाको, पाप-पुण्य की क्रियारोंको, सुखदुःखके संविभागको और शुभ-अशुभको प्रेरणासे की जाने वाली क्रियाको जानता है ॥३३९-३४०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy