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________________ श्रावकाचार-संग्रह जिनपूजाप्रभावेण भावसंग्रहणेन च । मालिन्यभावनिर्मुक्तास्ते जायन्ते नरेश्वराः ॥१९६ इति ज्ञात्वा जिनेन्द्राणां शुद्धद्रव्येन पूजनम् । क्रियते भव्यलोकेन भव्ये भव्यं मले मलम् ॥१९७ स्नपनं यो जिनेन्द्रस्य कुरुते भावपूर्वकम् । स प्राप्नोति परं सौख्यं सिद्धिनारीनिकेतनम् ॥१९८ जालान्तरगते सूर्ये यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः । तस्य त्रिशत्तमो भाग: परमाणु प्रचक्ष्यते ॥ १९९ तदेक परमाणोर्यंत्तद्वयांशोणुरीरितः । अणोविघटनं कालः समयः स उदाहृतः ॥ २०० षष्टिभिः समयैरुक्तं परिणामो जिनेश्वरैः । तेनैव परिणामेन संसाध्या गतिरुत्तमा ॥२०१ त्वमर्हस्त्वं सिद्धस्त्वमभव उपाध्यायतिलकस्त्वमाचार्यः साधुस्त्वमवगणिताशेषविषयः । त्वमेव पञ्चानां परमपुरुषाणां पदमिदं प्रभुञ्जानो नित्यमनध नय मामात्मपदवीम् ॥ २०२ राज्यं राजीवपुष्पैः कुलमपि बकुलेश्वम्पकैश्चारुविद्यां जातैर्जात सुजाति विचकिलकुसुमैश्चाधिपत्यं जनानाम् । कल्याणं पत्रिकाभिस्त्रिभुवनकमलां श्वेतपत्र प्रसूनै भव्या भावाल्लभन्ते जिनवचनगुरून् पात्रपूजात्रिकाले ॥२०३ योऽपक्वतक्रं द्विबलान्नमिश्रं भुक्ति विधत्ते मुखवाष्पसङ्गे । तस्याऽऽस्यमध्ये मरणं प्रपन्नाः सम्मूच्छंका जीवगणा भवन्ति ॥२०४ २२८ उत्पन्न होता है ॥ १९५ ॥ | जिन पूजनके प्रभावसे और उत्तम भावोंके संग्रह करनेसे जीव मलिन भावों से रहित होकर नरेश्वर होते हैं || १९६ || ऐसा जानकर भव्य लोगों को शुद्ध द्रव्यसे जिनेन्द्रोंका पूजन करना चाहिए। क्योंकि उत्तम भाव या वस्तुका फल उत्तम होता है और मलिन भाव या मलिन वस्तुका फल मलिन होता है || १९७|| जो पुरुष जिनेन्द्रदेवका भावपूर्वक स्नपन (अभिषेक) करता है, वह सिद्धिनारीके गृहपर उत्पन्न होनेवाले परम सुखको प्राप्त होता है || १९८ || गवाक्षजालके अन्तर्गत सूर्य की किरणोंमें जो सूक्ष्म रज दिखाई देता है, उसका तीसवाँ भाग (?) परमाणु कहा जाता है || १९९ || उस एक परमाणुका जो अर्ध भाग है, वह अणु कहा गया है । अणुके विघटनका जो काल है, वह समय कहा गया है || २००|| जिनेश्वरोंने साठ समय प्रमाण कालको 'परिमाण' कहा है । उस ही परिमाणके द्वारा उत्तम गति सिद्ध करना चाहिए || २०१ || हे भगवन्, तुम ही अन् हो, तुम ही सिद्ध हो, तुम ही उपाध्याय - तिलक हो, तुम ही आचार्य हां, तुम ही सर्व विषयोंका तिरस्कार करनेवाले साधु हो, तुम ही पाँचों परम पुरुषों के आस्पद हो । अतएव हे अनघ भगवन्, मुझे अपनी निर्दोष नित्य पदवी प्रदान करो || २०२|| तीनों कालों में जिनदेव, शास्त्र और गुरु पात्रोंकी भाव पूर्वक कमल पुष्पोंसे पूजा करनेसे भव्य पुरुष राज्यको, वकुलपुष्पोंसे उत्तम कुलको, चम्पक पुष्पोंसे सुन्दर विद्याको, जाति पुष्पोंसे उत्तम जातिको, विचकिलकुसुमोंसे मनुष्योंके आधिपत्यको, पत्रिका ( जायपत्री) से कल्याणको और श्वेतपत्रवाले पुष्पोंसे त्रिभुवनकी लक्ष्मीको प्राप्त करते हैं ||२०३ || जो पुरुष द्विदल अन्न- मिश्रित अपक्व ( कच्चे ) छांछको खाते हैं उनके मुखके भीतर सम्मूर्च्छन जीव समूह उत्पन्न होते हैं और मुखको भापके संग होनेपर * श्लोक १९९ और २०० ये दोनों श्लोक आगम-परम्पराके प्रतिकूल अर्थवाले हैं । -- सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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