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________________ व्रतोद्योतन - श्रावकाचार मुनेरप्यथवा मार्ग एक एव प्रदर्शितः । स्वाध्यायालोचनायुक्तं यत एव सुखस्थितः ॥ १८५ भावोऽपि सर्वथा साध्यो भावो लोकद्वयस्थितः । भावो मोक्षस्य जनकस्तस्माद् भावं समाचरेत् ॥१८६ शास्त्राभ्यासेन दानेन पूजया जीवरक्षया । यस्य गच्छत्यहोरात्रं तस्य जन्मैव सार्थकम् ॥ १८७ चर्मशोणितमांसास्थिमद्यतेरे (?) स्वजन्तवः । एते सप्तान्तरायाश्च भव्यानां मोाहेतवे ॥१८८ दर्शने स्पर्शने तेषां पाते निःसरणे तथा । पालयत्यन्तरायान् ये ते यान्ति परमं पदम् ॥१८९ अस्थानकसन्धानकयुग्मं भक्षयति यो नरः स्वादात् । उत्पद्यते सदा सो भवे भवे नीचकुलयोनौ ॥ १९० खाद्य पेयं निद्रा प्रारम्भो मैथुनं कषायाश्च । एते यस्य स्तोकास्तेषां स्तोको हि संसारः ॥१९१ प्रहरत्रयस्य मध्ये जीवेऽनन्तानुबन्धिबन्धः स्यात् । अप्रत्याख्यानेऽहनि पक्षे मासे द्वयोद्विधा ॥१९२ सुधौततन्दुलैः पूजां यो विधत्ते जिनाग्रतः । मन्दिरे स्वर्गपालस्य जायते स भवान्तरे ॥१९३ अधौतपत्र पुगानि यो ददाति जिनेश्वरे । दासीसुतः स शून्यस्य गृहे सञ्जायते तराम् ॥१९४ यः पूजयति सर्वज्ञं पुष्पाणां खण्डमालया । स मृत्वा निर्धने नीचे जायते म्लेच्छमन्दिरे ॥१९५ सोलह प्रकारकी कषायोंका त्याग करें । पाँच महाव्रतोंका, पाँच समितियोंका और पाँच आचारोंका पालन करना चाहिए, मति, श्रुत आदि पाँचों ज्ञानोंके प्राप्त करनेकी भावना करनी चाहिए और पुलाक आदि पाँचों निर्ग्रन्थों का स्वरूप तथा अहिंसादि प्रत्येक व्रतको पाँच-पाँच भावनाओंका चिन्तन करना चाहिए । अथवा बहुत कहने से यहाँपर क्या प्रयोजन है ? श्रावकों के ये दो ही मार्ग ( कार्य ) मुख्य माने गये हैं- - दान देना और पूजा-पाठ करना || १८४|| अथवा मुनिका भी स्वाध्याय और आलोचनायुक्त एक ही मार्ग बतलाया गया है । क्योंकि, इससे ही सुखमें स्थिति प्राप्त होती है || १८५ || मनुष्यको अपना भाव सर्वप्रकारसे सिद्ध करना चाहिए, क्योंकि भाव ही दोनों लोकोंको स्वस्थ रखनेवाला है और भाव ही मोक्षका उत्पादक है, इसलिए शुद्ध भावका ही सदा आचरण करना चाहिए || १८६ | | जिस मनुष्यके दिन-रात शास्त्रोंके अभ्यास करनेसे, दान देनेसे, पूजा करनेसे और जीवोंकी रक्षा करनेसे व्यतीत होते हैं, उसका हो जन्म सार्थक है ॥ १८७॥ चर्म, रक्त, मांस, हड्डी, मेदा, मद्य और अन्नादि भोज्य पदार्थों में पड़े हुए जन्तु, इन सात अन्तरायोंका भोजनके समय पालन करना भव्य जीवोंके मोक्ष प्राप्ति के लिए होता है ॥ १८८ || ऊपर कहे गये उन अन्तरायोंमें से कुछके देखनेपर, कुछके स्पर्श होनेपर, कुछके पतन होनेपर और जीवादिके भोज्य वस्तु में निकलने पर जो मनुष्य उन अन्तरायोंका पालन करते हैं, वे परम पदको जाते हैं || १८९ ॥ जो पुरुष अथाना और सन्धानक (मुरब्बा अवलेह आदि) स्वाद से खाता है, वह सदा भव-भवमें नीच - कुलकी योनि में उत्पन्न होता है ॥ १९०॥ खाद्य (भोजन), पेय (जल-पानादि), निद्रा, आरम्भ, मैथुन और कषाय ये जिस पुरुषके अल्प होते हैं, उनका संसार भी अल्प ही होता है || १९१ ॥ तीन पहरके मध्य में जीवके अनन्तानुबन्धी कषायका बन्ध होता है; एक दिनमें अप्रत्याख्यान कषायका बन्ध होता है । शेष दोमें से प्रत्याख्यान कषायका एक पक्षमें और संज्वलन कषायका एक मासमें बन्ध होता है (?) || १९२|| जो उत्तम प्रकारसे धोये चांवलोंसे जिनदेवके आगे पूजा करता है, वह दूसरे भव में स्वर्गपालक इन्द्रके मन्दिर में उत्पन्न होता है || १९३ || जो जिनेश्वरके आगे विना धोये हुए पत्र सुपारी आदि चढ़ाता है, वह अत्यन्त दरिद्रके घरमें दासी पुत्र उत्पन्न होता है || १९४॥ जो फूलों की खंडित मालासे सर्वज्ञकी पूजा करता है, वह मरकर निर्धन, नीच और म्लेच्छके घरमें १. यह श्लोक विचारणीय है ? ★ यह अर्थ विचारणीय है । —–सम्पादक Jain Education International २२७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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