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________________ व्रतोद्योतन-श्रावकाचार २२५ गुरूपदेशतो लोकथिति जानाति यः पुमान् । तस्य दुर्लभबोषिः स्यात्सर्ववस्तुप्रकाशकः ॥१६९ उत्तमक्षमया मावान्मार्दवे सदयो भवेत् । आर्जवे सरलत्वं स्यात्सत्ये सत्त्वाधिको मतः ॥१७० शौचे शुचिष्मतां प्राप्तः संयमे संयमावृतः । तपसा तपसां सिद्धिस्त्यागादानस्य शक्तिता ॥१७१ अकिञ्चनस्य संसिद्धौ निरहङ्कारलक्षणम् । ब्रह्मवते परिप्राप्ते भव्यो लौकान्तिको भवेत् ॥१७२ इति दशविधधर्म ये नरा पालयन्ति स्वहितपरमबुद्धया धारयन्तो व्रतानि । गरिमगुणनिधानं प्राप्य धात्रीपतीनां त्रिभुवनशिखराग्रं शाश्वतं ते लभन्ते ॥१७३ अन्यानि यानि कानोह व्रतानि जिनशासने । भवन्ति तानि भव्येन पालितव्यानि सिद्धये ॥१७४ इति द्वादशभेदेनानुप्रेक्षां चिन्तयन्ति ये। ते लभन्ते परं सौख्यं परमानन्दकारकम् ॥१७५ ये चारित्रं समादाय त्यजन्ति विषयात्मकाः । न च व्यावृत्य गृह्णन्ति ते गथे सन्ति कोटकाः ॥१७६ तेभ्यो दानं न दातव्यमुत्तमं श्रावकोत्तमैः । हतभस्मनि होतव्यं जायते हि निरर्थकम् ॥१७७ न प्रणम्या न सत्कार्या न ते पूज्याः कदाचन । तेषां मुखं न द्रष्टव्यं चाण्डालेभ्यः पतन्ति यत् ॥१७८ आहारौषधजीवरक्षाणपरिज्ञानानि ये श्रावकाः पात्रेभ्यो वितरन्ति भावसहिताः स्वीकृत्य जैनं व्रतम् । ते विद्याधरचक्रवर्तिपदवी भुक्त्वा सुराणां धियं भुञ्जानाः परमार्थसौख्यमतुलं गच्छन्ति धर्माङ्किताः ॥१७२ है ॥१६८।। जो पुरुष गुरुके उपदेशसे लोककी स्थितिको जानता है उसके सर्व वस्तुओंकी प्रकाशक दुर्लभबोधि प्राप्त होती है। यह लोक और बोधिदुर्लभ भावना है ॥१६९॥ उत्तम क्षमासे मनुष्य क्षमावान् होता है, मार्दवधर्म होनेपर मनुष्य दयालु होता है, आर्जवधर्म होनेपर सरलता होती है, सत्यधर्म होनेपर अधिक सत्त्वशाली माना जाता है। शौचधर्म होनेपर पवित्रता प्राप्त होती है, संयमधर्म होनेपर संयमसे आवृत (सुरक्षित) होता है, तपसे तपोंकी सिद्धि होती है, त्याग धर्मसे दानकी शक्ति प्राप्त होती है, आकिंचन्यधर्मकी सिद्धि होनेपर निरहंकारता आती है और ब्रह्मचर्यके प्राप्त होनेपर भव्यपुरुष लोकवेत्ता अन्तको प्राप्त होनेवाला लौकान्तिक देव होता है ॥१७०-१७२॥ जो मनुष्य आत्महितको उत्तम बुद्धिसे व्रतोंको धारण करते हुए इस दश प्रकारके धर्मका पालन करते हैं; वे राजाओंके गरिमायुक्त गुणोंके निधानभूत चक्रवर्ती तीर्थकरादिके पदको पाकर शाश्वत स्थायी त्रिभुवनके शिखरके अग्रभागको प्राप्त करते हैं ॥१७३। इस जिनशासनमें और कोई भी जितने व्रत कहे गये हैं, उन्हें सिद्धि प्राप्त करनेके लिए भव्यजीवको पालना चाहिए ॥१७४|| इस प्रकार जो भव्यजीव बारह भेदरूपसे भावनाओंका चिन्तन करते हैं, वे परम आनन्द करनेवाले सुखको प्राप्त करते हैं ॥१७५।। जो पुरुष चारित्रको धारणकर विषयोंमें आसक्त होकर उसे छोड़ देते हैं और लौटकर फिर धारण नहीं करते हैं, वे जीव विष्टाके कीड़े होते हैं ॥१७६।। ऐसे चारित्रभ्रष्ट लोगोंके लिए उत्तम श्रावकोंको दान नहीं देना चाहिए, क्योंकि अग्निके भस्म हो जानेपर अर्थात् बुझकर राख हो जानेपर उसमें हवन करना निरर्थक होता है ॥१७७|| ऐसे चारित्र-भ्रष्ट लोग न प्रणामके योग्य हैं और कभी पूजाके योग्य हैं। उनका मुख भी नहीं देखना चाहिए, क्योंकि वे चाण्डालोंसे भी अधिक पतित हैं ॥१७८|| जो श्रावक जैनवतोंको स्वीकार करके भाव-सहित आहारदान, औषधिदान, जीव-रक्षाके रूप अभयदान और ज्ञानदान पात्रोंके लिए देते हैं वे धर्मात्मा या पुरुष विद्याधर और चक्रवर्तीकी पदवी भोगकर और देवोंकी लक्ष्मीको भोगते हुए अतुल (उपमा-रहित) परमार्थ सौख्यको (मोक्षको) २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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