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________________ बावकाचार-संग्रह पवान्नाविषु भोजनेन सततं नो गृह्यते यद्वपुः कर्पूरादिसुगन्धिभिः परिमले! वासमायाति यत् । हं हो चित्त कथं रति वितनुषे तत्राशुचौ भाजने यद-यद्-वस्तु शरीरसम्भवकृते तद्-तद् भवेत् कुत्सितम् ॥१६२ बन्नं कुरुते गर्थ सलिलं मूत्रं च यद्वपुः प्रसभम् । तस्य कृते को हर्षो विधीयते को विषादश्च ॥१६३ मनोवचःकायमतेन यत्र शुभाशुभं कर्म तनोति पाशम् । जीवे यथा वागुरिके समस्ते तमास्रवं केवलिनो वदन्ति ॥१६४ मिथ्यात्वाविरतिप्रमादसहितर्योगैः कषायान्वितै __ो बन्धो नितरां बभूव सकले जीवे तथा पुद्गले । सर्वज्ञेन विना चतुर्गतिकरं तं कोऽपि जेतुं क्षमः साध्यं देयसमस्तवस्तुपटुना पुण्येन पापं यतः ॥१६५ यात्रवाणां समस्तानां निरोधो यत्र भाव्यते । स बुधैः संवरः प्रोक्तो द्रव्य-भावप्रभेदतः ॥१६६ अनुप्रेक्षातपोवृत्तगुप्तिधर्मपरीषहैः । युक्तेः समितिभिः प्रोक्ता निर्जरा मुनिनायकैः ॥१६७ निर्जरा कर्मणां नाशः सविपाकाविपाकतः । यया निर्जरया सिद्धिरनायासेन लभ्यते ॥१६८ आंख अन्य है, रसना अन्य है, नासिका अन्य है, शरीर और कान अन्य हैं । वचन भी अन्यरूप हैं। पिता अन्य स्वभाववाले हैं और माता भी अन्य हैं। इस प्रकार यह जीव भव-भवमें अन्यत्वको प्राप्त होता है। इस प्रकारसे अन्यत्व भावनाका विचार कर ॥१६१।। . पकवान आदिमें भोजनके साथ कर्पूर आदि सुगन्धित वस्तुओंको हमारा जो यह शरीर निरन्तर ग्रहण करता है, फिर भी वह उन सुगन्धियोंसे सुगन्धको प्राप्त नहीं होता है (किन्तु सदा दुर्गन्धित ही रहता है। फिर भी हा हाय, रे चित्त तू इस अशुचिके भाजन शरीरमें रति कैसे करता है ? जो-जो उत्तम वस्तु इस शरीरके लिए सम्भव की जाती है, वह वह सब इसके सम्पर्कसे ग्लानिके योग्य हो जाती है ॥१६२।। यह शरीर शीघ्र ही पवित्र अन्नको विष्टा बना देता है और स्वच्छ जलको मूत्र बना देता है, उस शरीरके लिए क्या हर्ष किया जाय और क्या विषाद किया जाय? ऐसी अशुचिभावनाका विचार कर ॥१६३।। मन, वचन और कायकी चंचलताके द्वारा आनेवाला शुभ-अशुभकर्म समस्त जीवोंमें पाश (जाल) को विस्तारता है। जैसे हरिणादिकको पकड़नेके लिए शिकारी जालको फैलाता है। इसी कर्मागमनको केवली भगवन्त आस्रव कहते हैं ॥१६४|| मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद-सहित तथा कषायोंसे युक्त योगोंके द्वारा समस्त जीव और पुद्गलमें जो अत्यन्त सघन बन्ध होता है, उस चतुर्गतिमें परिभ्रमण करानेवाले कर्म-बन्धको सर्वज्ञदेवके विना कोन दूसरा जीतनेके लिए समर्थ है ! क्योंकि देने योग्य समस्त वस्तुओंको मिलानेमें कुशल पुण्यके द्वारा पाप साध्य है। भावार्थ-ऐसा कोई भी पुण्य कर्म नहीं हैं कि जिसके उदयसे प्राप्त भोगोंके सेवनसे पापका उपार्जन न होता हो ॥१६५|| जहाँपर समस्त आस्रव द्वारोंका निरोध किया जाता है, वहीं विद्वानोंने द्रव्य और भावके भेदसे दो भेदरूप संवर कहा है। यह संवर भावना है ।।१६६।। समितियोंसे युक्त अनुप्रेक्षा, तप, चारित्र, गुप्ति, धर्म और परीषह जयके द्वारा मुनि-नायकोंने कर्म-निर्जरा कही है ।१६७॥ सविपाक और अविपाकरूपसे कर्मोंका नाश होना निर्जरा है। इस निर्जराके द्वारा विना प्रयासके ही सिद्धि प्राप्त होती है। यह निर्जरा भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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