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________________ पूज्यषाद-श्रावकाचार रात्रिभुक्तिफलान्मा जायन्ते व्याधिपीडिताः । वासभृत्याः परेषां च स्वबन्धुजनजिताः ॥८९ आरूढा मत्तमातङ्गं वीज्यमानाः सुचामरैः । ये यान्ति स्वजनैः साधं ते निशाहारवर्जनात् ॥९० याः परुषाङ्गदासाद्या याः पुत्रपतिजिताः । या दौर्भाग्यग्रहग्रस्तास्ता निशाहारभुक्तितः ॥९१ लीलया योषितो यान्ति या यानगजवाजिषु । वसन्ति दिव्यहर्येषु ता रात्र्याहारवर्जनात् ॥९२ दृश्यन्ते मर्त्यलोकेऽस्मिन् ये सुन्दरनराधिपाः । राज्यभुक्तिफलं सर्वं तच्चेव हि न संशयः ॥९३ दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभूते दिवाकरे । नक्तं तं प्राहुराचार्या न नक्तं रात्रिभोजनम् ॥९४ यथा चन्द्रं विना रात्रिर्वा कमलविना सरः । तथा न शोभते जीवो विना धर्मेण सर्वदा ॥९५ अद्य श्वो वा परस्मिन् वा दिने धर्म करोम्यहम् । चिन्तयन्ति जना एवं क्षणं न सहते यमः ॥९६ दावाग्निः शुष्कमा वा काष्ठं न सहते ध्रुवम् । यथा तथा यमो लोके बालं वृद्धं च यौवनम् ॥९७ कालक्षेपो न कर्तव्य आयुः क्षीणं दिने दिने । यमस्य करुणा नास्ति धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥९८ अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रह ॥९९ आत्मरूढतरोरपि मागच्छतौ तं नवत्यग्नौ । वृक्षाग्रं वाग्निना लग्नं तत्सुखं कुरुते वनम् ॥१०० निर्मल अंगके धारक और दिव्य वस्त्राभूषण वाले होते हैं ।।८८।। रात्रि भोजनके फलसे मनुष्य सदा व्याधियोंसे पीडित, दूसरोंके घर दास कर्म करनेवाले और स्वबन्धुजनोंसे रहित होते हैं ।।८९॥ मदोन्मत्त हाथियोंपर आरूढ़, श्वेत चामरोंसे वीज्यमान जो मनुष्य स्वजनोंके साथ आज जाते हुए दिखाई देते हैं, वे रात्रि-भोजनके त्यागसे ऐसी सम्पदाको प्राप्त हए हैं ॥९॥ लोकमें जो परुष ( कठोर एवं रूक्ष) अंगवाली दासी आदि देखी जाती हैं, जो पुत्र और पतिसे रहित स्त्रियाँ हैं और जो दुर्भाग्यरूप ग्रहसे पीड़ित स्त्रियाँ देखने में आती हैं, वे सब रात्रि-भोजनके फलसे उत्पन्न हुई हैं, ऐसा जानना चाहिये ।।९१।। किन्तु जो स्त्रियां पालको, मियाना आदि यानों पर, हाथी और घोड़ों पर सवार होकर लीलापूर्वक गमन करती हैं और दिव्यं भवनोंमें निवास करती हैं, वे सब रात्रिमें आहारके त्यागसे उत्पन्न हुई हैं ॥९२॥ इसी प्रकार इस लोकमें जो सुन्दर मनुष्य और उनके स्वामी दिखाई देते हैं, वे सब रात्रिमें भोजन नहीं करनेके फलसे उत्पन्न हुए हैं, इसमें कोई संशय नहीं है ।।९३।। दिनके आठवें भागमें सूर्यके मन्द प्रकाशके हो जानेपर अवशिष्ट कालको आचार्यगण 'नक्त' ( रात्रि ) कहते हैं। केवल रात्रिमें भोजन करनेको ही नक्त भोजन नहीं कहते हैं। अपितु इस समयमें भोजन करना भी रात्रि-भोजन है ।।९४॥ जैसे चन्द्रके विना रात्रि, और कमलोंके विना सरोवर नहीं शोभित होता है उसी प्रकार धर्मके विना जीव कभी भी शोभा नहीं पाता है ।।९५॥ मनुष्य ऐसा चिन्तवन करते हैं कि मैं आज, कल या परसोंके दिन धर्म करूंगा। किन्तु यमराज एक क्षणका विलम्ब सहन नहीं करता है ।।९६॥ जैसे दावाग्नि सूखे या गीले काठको सहन नहीं करती, अर्थात् सबको विना किसी भेद-भावके भस्म कर देती है, यह ध्रुव सत्य है। इसी प्रकार यमराज भी लोकमें बाल, वृद्ध या यौवन अवस्थाको नहीं देखता है, अर्थात् सबको समानरूपसे मार डालता है ॥९७|| आयु दिन दिन क्षीण होती है, इसलिए व्यर्थ काल व्यतीत नहीं करना चाहिये, क्योंकि यमराजके करुणा नहीं है और धर्मकी गति बहुत तेज है ॥९८॥ शरीर अनित्य हैं, विभव शाश्वत रहनेवाले नहीं हैं, और मृत्यु नित्य समीप आ रही है। अतएव धर्मका संग्रह शीघ्र करना चाहिये ।।९९॥ यह संसारी प्राणी अन्य पुरुषोंसे नित्य कहता है कि आजके दिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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