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________________ १९८ बावकाचार-संवह परलोकसुखं भुक्त्वा पश्चान्मन्दरपर्वते । सुरपूजां ततो लग्ध्वा निर्वति यान्ति ते नराः ॥७७ मामादिभिश्चतुर्भेजिनसंहितया पुनः । यन्त्रमन्त्रक्रमेणेव स्थापयित्वा जिनाकृतिम् ॥७८ जन्म जन्म यवम्यस्तं वानमध्ययनं तपः । तस्यैवान्यासयोगेन तदेवाम्यस्यते पुनः ॥७९ यद-गृहीतं व्रतं पूर्व साक्षीकृत्य जिनान् गुरुन् । तद-व्रताखण्डनं शोलमिति प्राहुर्मुनोश्वराः ॥८० यान्ति शोलवतां पुंसां वश्यतां दुष्टमानवाः । अत्युमा अपि तिर्यञ्चाक्षुद्रोपद्रवकारिणः ॥८१ उपवासो विधातव्यः पञ्चम्यादिषु पर्वसु । श्रेयोऽर्थ प्राणिभिभव्यस्त्रिशुद्धया जिनभक्तितः ॥८२ उपवासो विषातव्यो गुरूणां स्वस्य साक्षिकः । उपवासो जिनरुक्तो न च वेहस्य दण्डनम् ॥८३ बष्टमी चाष्टकर्मघ्नी सिद्धिलाभा चतुर्दशी । पञ्चमी ज्ञानलाभाय तस्मात्त्रितयमाचरेत् ॥८४ तेन नश्यन्ति कर्माणि सञ्चितानि पुरात्मना । नष्टकर्मा ततः सिद्धि प्रयात्यत्र न संशयः ॥८५ पिपीलिकादयो जोवा भक्ष्यन्ते दीपकनिशि। गिल्यन्ते भोक्तृभिः पुम्भिस्ते पुनः कवलैः समम् ॥८६ स्फुटिताहिकरा दीना ये काष्ठतणवाहकाः । कुचेलाः दुःकुलाः सन्ति ते रात्र्याहारसेवनात् ॥८७ सुस्वरा निर्मलाङ्गाश्च दिव्यवस्त्रविभूषणाः । जायन्ते ते नराः पूर्व त्यक्तं निशिभोजनम् ॥८८ आदि चार निक्षेपोंके द्वारा जिनसंहिताको विधिसे और यंत्र-मंत्रके क्रमसे ही जिनेन्द्रकी आकृतिकी स्थापना करके जो जिनपूजन करते हैं, वे परलोकमें सुख भोगकर, तत्पश्चात् सुमेरु पर्वतपर देवोंके द्वारा जन्माभिषेक पूजाको प्राप्त कर पुनः मुक्तिको जाते हैं ॥७७-७८॥ मनुष्य जन्म-जन्ममें जिस दान, अध्ययन और तपका अभ्यास करता है, उसी अभ्यासके योगसे वह पुनः और भी उनका अभ्यास करता है। (और इस प्रकार उत्तरोत्तर अभ्याससे वह उन्नति करता हुआ अन्तमें परम पदको प्राप्त करता है) ॥७९॥ जो व्रत पहले जिनेन्द्रदेव और गुरुजनोंकी साक्षीपूर्वक ग्रहण किया है, उस व्रतके अखंडित पालन करनेको मुनीश्वर शील कहते हैं ।।८०॥ शीलवान् पुरुषोंके दुष्ट मनुष्य, अत्यन्त उग्र तिर्यञ्च और क्षुद्र उपद्रवकारी देव-दानव भी वशको प्राप्त होते हैं ॥८॥ __ पंचमी आदि पर्वोमें भव्य पुरुषोंको आत्मकल्याणके लिए मन वचन कायकी शुद्धिसे जिनभक्तिके साथ उपवास करना चाहिये । गुरुजनोंकी साक्षीपूर्वक अपने उद्धारार्थ उपवास करना चाहिये। जिनेन्द्रदेवोंने (विषय-कषायकी प्रवृत्तिको रोकनेके लिए आहारके त्यागको) उपवास कहा कहा है। केवल देहके सुखानेको उपवास नहीं कहा है। अष्टमी अष्टकर्म-विनाशिनी है, चतुर्दशी सिद्धि-प्रदायिनी है और पंचमी केवलज्ञानके लाभके लिए कही गयी है, इसलिए इन तीनों ही पर्वोमें अपवास करना चाहिये ॥८२-८४।। इस उपवाससे आत्माके द्वारा पूर्वकालमें संचित कर्म नष्ट होते है और कोका नाश करनेवाला जीव सिद्धि (मुक्ति) को जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥८॥ रात्रिमें दीपकोंके प्रकाशमें भो खानेवाले पुरुषोंके द्वारा कीड़ी आदि छोटे छोटे जन्तु ग्रास के साथ खा लिए जाते हैं ॥८६।। अतः रात्रिमें बाहार-सेवन करनेसे मनुष्य परभवमें जिनके हाथपैर फट रहे हैं, ऐसे दीन, काठ और घासके भार-वाहक, कुचीवर-धारी और दुष्कुलवाले होते है। किन्तु जिन्होंने पूर्व भवमें रात्रि भोजनका त्याग किया है, वे मनुष्य उत्तम स्वर एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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