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________________ उमास्वामि श्रावकाचार लाभालाभभयद्वेषैरसत्यं यत्र नोच्यते । सूनृतं तत्प्रशंसन्ति तथ्यमेव द्वितीयकम् ॥ ३४६ कुरूपत्वलघीयस्त्वनिन्द्यत्वादिफलं द्रुतम् । विज्ञाय वितथं तथ्यवादी तत्क्षणतस्त्यजेत् ॥ ३४७ तदसत्योचितं वाक्यं प्रमादादपि नोच्यते । उन्मूल्यन्ते गुणा येन वायुनेव महाद्रुमाः ॥ ३४८ असत्याधिष्ठितं दिष्टं विरुद्धं मलसङ्कलम् । ग्राम्यं च निष्ठुरं वाक्यं हेयं तत्त्व विशारदैः ॥ ३४९ नृतं न वचो ब्रूते यः प्राप्य जिनशासनम् । मृषावादी मृतो मूढः कां गतिं स गमिष्यति ॥३५० सत्यवाक्याज्जनः सर्वो भवेद्विश्वासभाजनम् । किं न रथ्याम्बु दुग्धाब्धेः सङ्गाददुग्धायते तराम् ३५१ स्वात्माधीनेऽपि माधुर्ये सर्वप्राणिहितङ्करे । ब्रूयात्कर्णकटु स्पष्टं को नाम बुधसत्तमः ॥३५२ सत्त्वसन्ततिरक्षार्थं मनुष्यः करुणाचणः । असत्याधिष्ठितं वाक्यं ब्रुवन्नपि न पापभाक् ॥ ३५३ परोपरोधतो ब्रूते योऽसत्यं पापवञ्चितः । वसुराज इवाप्नोति स तूर्णं नरकावनिम् ॥३५४ सूनृतं हितमग्राम्यं हितं कारुणयाञ्चितम् । सत्योपकारकं वाक्यं वक्तव्यं हितकाङ्क्षिणा ॥ ३५५ धनदेवेन सम्प्राप्तं जिनदेवेन चापरम् । फलं त्यागापरभवं परमं सत्यसम्भवम् ॥३५६ विस्मृतं पतितं नष्टं स्थापितं पथि कानने । परस्वं गृह्यते यैनं तार्तीयकमणुव्रतम् ॥३५७ दास्यप्रेष्यस्वदारिद्रयदौर्भाग्यादिफलं सुधीः । ज्ञात्वा चौथं विचारज्ञो विमुञ्चेन्मुक्तिलाल१: ३५८ धैर्येण चलितं धर्मवृद्धया च प्रपलायितम् । विलीनं परलोकेन स्तेयता यदि मानसे ॥ ३५९ १८१ लाभ, अलाभ, भय और द्वेषसे भी असत्य नहीं बोला जाता है, उस सत्यकी ज्ञानीजन प्रशंसा करते हैं । यह दूसरा सत्याणुव्रत है || ३४६ || सत्यवादी मनुष्य असत्य भाषण के कुरूपता, लघुता, और निन्द्यपना आदि फलको जानकर तत्क्षण शीघ्र हो असत्य बोलनेका त्याग करें || ३४७|| जिस असत्य से महान् गुण भी पवनके द्वारा महान् वृक्षोंके समान जड़से उखाड़कर फेंक दिये जाते हैं, ऐसा असत्योचित वाक्य प्रमादसे भी नहीं बोलना चाहिये || ३४८ || जो वचन असत्यसे मिश्रित, श्लेषयुक्त, विरुद्ध, दोष-बहुल, ग्रामीण एवं निष्ठुर हों, उनका बोलना तत्त्वज्ञानी जनोंको छोड़ देना चाहिये || ३४९ || जो मनुष्य जिनशासनको पाकरके भी सत्य वचन नहीं बोलता है, वह असत्यवादी म्ढ़ मरकर किस गतिको जायगा, सो सर्वज्ञ ही जानें || ३५० || सत्य वाक्य बोलनेसे सभी मनुष्य सभी के विश्वास भाजन होते हैं । देखो - गलीका जल भी क्षीरसागरके संगमसे उत्तम दूधके समान क्या प्रतीत नहीं होता है || ३५१ || सर्वप्राणियों के हितकारक मधुर वचनोंका बोलना अपने अधीन होनेपर भी कौन उत्तम ज्ञानी जान-बूझकर कर्णकटु वचन बोलेगा ||३५२|| प्राणिसमूहकी रक्षा के लिये करुणावान् मनुष्य असत्य से संयुक्त वाक्यको बोलता हुआ भी पापका भागी नहीं होता है ||३५३॥ पापसे ठगाया गया जो मनुष्य दूसरेके आग्रहसे असत्य वचन बोलता है, वह वसु राजाके समान शीघ्र ही नरकभूमिको प्राप्त होता है || ३५४ || इसलिए आत्म- हितैषी मनुष्यको सत्य, हितकारक, अग्रामीण, प्रामाणिक, दया-गर्भित और उपकारक सत्य वाक्य ही बोलना चाहिये ॥३५५।। देखो - धनदेवने तो सत्य त्यागने के कारण महान् दुःख पाये और जिनदेवने सत्यसम्भव वचन बोलने से फलको प्राप्त किया । अतः असत्यभाषण छोड़कर सत्यवचन ही बोलना चाहिये || ३५६ || मार्ग में, वनमें (अथवा किसी भी स्थानमें) दूसरेके भूले हुए, गिरे हुए, नष्ट हुए अथवा रखे हुए पराये धनको जो पुरुष नहीं ग्रहण करते हैं, उनके यह तीसरा अचौर्याणुव्रत होता है ||३५७॥ दासता, .सेवकपना, दरिद्रता और दुर्भाग्यता आदि प्राप्त होनेको चोरीका फल जानकर विचारशील और मुक्तिके इच्छुक ज्ञानीजनको चोरीका त्याग करना चाहिये || ३५८|| जिस मनुष्यके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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