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श्रावकाचार-संग्रह विलोक्यानिष्टकुष्ठित्वपङ्गत्वादिफलं सुधीः । त्रसानां न क्वचित्कुर्यान्मनसापि हि हिंसनम् ।।३३४ स्थावरेष्वपि सत्त्वेषु न कुर्वीत निरर्थकम् । स्थास्नु मोक्षसुखं काङ्क्षन् हिंसा हिंसापराङ्मुखः ॥३३५ स्थावराणां पञ्चकं यो विनिघ्नन्नपि तिक्षति । त्रसानां दशकं सः स्याद्विरताविरतः सुधीः ॥३३६ म्रियस्वेत्युच्यमानोऽपि देही भवति दुःखितः । मार्यमाणः प्रहरणैर्दारुणैनं कथं भवेत् ॥३३७ जिजीविषति सर्वोऽपि सुखितो दुःखितोऽथवा । ततो जीवितदात्रात्र कि न दतं महीतले ॥३३८ सर्वासामेव देवीनां दयादेवी गरीयसी । या ददाति समस्तेभ्यो जीवेभ्योऽभयदक्षिणाम् ।।३३९ निशातधारमालोक्य खङ्गमुत्खातमङ्गिनः । कम्पन्ते त्रस्तनेत्रास्ते नास्ति मृत्युसमं भयम् ॥३४० प्राणिघातः कृतो देवपित्रथमपि शान्तये। न क्वचित्किं गुडाश्लिष्टं न विषं प्राणघातकम् ॥ हिंसा विघ्नाय जायेत विघ्नशान्त्य कृतापि हि । कुलाचारधियाऽप्येषा कृता कुलविनाशिनी ॥३४२
अपि शान्त्यै न कर्तव्यो घोरः प्राणिवधः क्वचित् ।
यशोधरो न कि यातस्तं कृत्वा किल दुर्गतिम् ॥३४३ कुणिर्वरं वरं पङ्गः शरीरी च वरं पुमान् । अपि सर्वाङ्गसम्पूर्णो न तु हिंसापरायणः ॥३४४ पाठीनस्य किलैकस्य रक्षणात्पञ्चधाऽऽपदः । व्यतीत्य सम्पदं प्राप धनकोत्तिर्मनीषिताम
करना, सो वह विश्वका हितकारी अहिंसा नामका व्रत है ।।३३३।। संसारमें अनेक अनिष्ट रोगोंसे ग्रस्त कोढ़ी, पंगु आदिके फलको देखकर बुद्धिमान् पुरुषको त्रस जीवोंको हिंसाका भाव मनसे भी कभी नहीं करना चाहिये ॥३३४।। स्थायो मोक्षसुखकी आकांक्षा करनेवाले पुरुषको स्थावर जीवोंको भी निरर्थक हिंसा नहीं करनी चाहिये और हिंसासे पराङ्मुख रहना चाहिये ।।३३५।। आरम्भ आदि कार्योंके वश होकर पाँच प्रकारके स्थावर जीवोंका घात करता हुआ भी जो पुरुष द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रियके पर्याप्त-अपर्याप्तरूप अथवा सूक्ष्म-स्थावररूप दश प्रकारके त्रस जीवोंकी रक्षा करता है, वह बुद्धिमान् विरताविरत (देशसंयम) का धारक होता है ॥३३६।। 'तुम मर जाओ' ऐसा कहा गया भी प्राणी जब दुखी होता है, तब दारुण शस्त्रोंसे मारा जाता हुआ वह कैसे अत्यन्त दुखी नहीं होगा ? अवश्य ही होगा ॥३३७।। इस भूतलपर सुखी अथवा दुखी कोई भी प्राणी हो, सभी जीना चाहते हैं, तब प्राणियोंको जीवनदान करनेवाले दाताने क्या नहीं दिया ? अर्थात् जोवोंको सभी सूख दिया ॥३३८|| संसार में जितने भी देवी-देवता हैं, उन सबमें दयादेवी ही सबसे श्रेष्ठ है, जो कि समस्त ही जीवोंके लिये अभयदानकी दक्षिणा देती है ॥३३९॥ तीक्ष्ण धारवाली तलवारको मारनेके लिये उठी हुई देखकर प्राणी भयभीत नेत्र होकर काँपने लगते हैं । अतः संसारमें मृत्युके समान और कोई बड़ा भय नहीं है ।।३४०॥ देवता और पितरोंके लिये भी किया गया प्राणिघात कभी भी सुख-शान्तिके लिये नहीं होता है। क्या गुडसे मिश्रित विष प्राण-घातक नहीं होता है ॥३४१॥ विघ्नोंकी शान्तिके लिये की गई भी हिंसा विघ्नके ही लिये होती है। कुलाचारको बुद्धिसे भी की गई हिंसा कुलका विनाश करनेवाली ही होती है ॥३४२।। शान्तिके लिये भी घोर प्राणिघात कभी भी कहीं पर नहीं करना चाहिये। देखो यशोधर-राजा ऐसी हिंसाको करके क्या दुर्गति नहीं प्राप्त हुआ ॥३४३।। दयावान् लूला-लंगड़ा भी मनुष्य श्रेष्ठ हैं, किन्तु हिंसापरायण पुरुष सर्वाङ्गसे सम्पूर्ण होनेपर भी श्रेष्ठ नहीं है ॥३४४॥ देखो-एक मच्छकी रक्षा करनेसे पाँच बार आपत्तियोंसे बचकर धनकीर्ति धीवर मनोवांछित सम्पदाको प्राप्त हुआ अतः ज्ञानियोंको हिंसासे बचना चाहिये ।।३४५॥ जहाँपर
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