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________________ उमास्वामि-भावकाचार हिंसादिकलितो मिथ्यादृष्टिभिः प्रतिपादितः । धर्मो भवेदिति प्राणी वदन्नपि हि पापभाक्॥१३ महावतान्वितास्तत्त्वज्ञानाधिष्ठितमानसाः । धर्मोपदेशकाः पाणिपात्रास्ते गुरवो मताः ॥१४ पश्चाचारविचारज्ञाः शान्ता जितपरीषहाः । त एव गुरवो ग्रन्थेमुक्ता बा।रिवाऽऽन्तरेः ॥१५ क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । आसनं शयनं कुप्यं भाण्डं चेति बहिर्वश ॥१६ मिथ्यात्ववेदरागाश्च द्वेषो हास्यादयस्तथा । क्रोधादयश्च विज्ञेया आभ्यन्तरपरिग्रहाः ॥१७ यथेष्टभोजना भोगलालसा कामपीडिताः । मिथ्योपदेशदातारो न ते स्युगुरवः सताम् ॥१८ सरागोऽपि हि देवश्चेद् गुरुरब्रह्मचार्यपि । कृपाहीनोऽपि धर्मश्चेत्कष्टं नष्टं हि हा जगत् ॥१९ एतेषु निश्चयो यस्य विद्यते स पुमानिह । सम्यग्दृष्टिरिति ज्ञेयो मिथ्यादृष्टिश्च संशयी ॥२० जोवाजीवादितत्त्वानां श्रद्धानं दर्शनं मतम् । निश्चयात्स्वे स्वरूपे वाऽवस्थानं मलवजितम् ॥२१ पञ्चाक्षपूर्णपर्याप्त लब्धकालावलब्धिके । निसर्गाज्जायते भव्येऽधिगमाद्वा सुवर्शनम् ॥२२ आसन्नभव्यता कर्महानिसंजित्वशुद्धपरिणामाः । सम्यक्त्वहेतुरन्तर्बाह्य उपवेशकाविश्च ॥२३ त्रयो भेदास्तस्य चोक्ता आज्ञाद्या वशषा मताः । प्रागेवोपशमो मिश्रः क्षायिकं च ततः परम् ॥२४ को धर्म कहते हैं, वह धर्म नहीं, किन्तु अधर्म है ॥१३।। जो महाव्रतोंसे संयुक्त हैं, जिनका मन तत्त्वज्ञानके विचारमें संलग्न है, जो धर्मके उपदेशक हैं और पाणिपात्रमें भोजन करते हैं, वे ही परुष गुरु माने गये हैं ।।१४।। जो दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पांच आचारोंके विचारज्ञ हैं, जिनके कषाय शान्त हैं, शीत-उष्णादि परीषहोंके विजेता हैं, और जो बाह्य परिग्रहके समान अन्तरंग परिग्रहोंसे भो रहित हैं, वे ही सच्चे गुरु हैं ॥१५॥ क्षेत्र (भूमि), वास्तु (भवन), धन, धान्य, द्विपद (दासी-दास), चतुष्पद (हाथी घोड़ा आदि), आसन, शय्या, कुप्य (वस्त्रादि) और भाण्ड (बर्तन) यह दश प्रकारका बाह्य परिग्रह है ॥१६॥ मिथ्यात्व, स्त्री पुरुष और नपुंसक ये तीन वेद, राग, द्वेष, हास्यादिक (हास्य, शोक, भय, जुगुप्सा) और क्रोधादिक चार कषाय ये चोदह अन्तरंग परिग्रह कहलाते हैं ॥१७॥ जो इन बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहोंसे संयुक्त हैं, यथेष्ट भोजन करते हैं, भोगोंकी अभिलाषावाले हैं, कामदेवसे पीड़ित हैं और मिथ्यामार्गके उपदेशको देते हैं, वे पुरुष सज्जनोंके गुरु नहीं हो सकते हैं, अर्थात् ऐसे पुरुष सद्-गुरु नहीं किन्तु कुगुरु हैं ॥१८॥ यदि राग-द्वेष युक्त पुरुष भी देव माना जाय, अब्रह्मचारी पुरुष भी गुरु कहा जाय और दया-हीन भी धर्म माना जाय, तब यह अति कष्टको बात है कि यह सारा जगत् नष्ट ही हो जायगा |१९|| इसलिए जिसे वीतराग देवमें, निग्रन्थ गरुमें और दयामय धर्ममें निश्चय है, वह सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। तथा जिसके सरागी देवमें, सग्रन्थ और अब्रह्मचारी गुरुमें एवं हिंसामय-दयाहीन धर्ममें निश्चय है, या सत्यार्थ देव गुरु धर्ममें निश्चय नहीं है, संशय है, वह मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए ॥२०॥ जीव अजीव आदि सात तत्त्वोंका निर्मल श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन माना गया है। और निश्चयसे अपने आत्मस्वरूप में अवस्थान होना सम्यग्दर्शन है ॥२॥ पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक, संजी भव्य जीवमें काललब्धि आदिके प्राप्त होनेपर यह सम्यग्दर्शन निसर्गसे अथवा अधिगमसे उत्पन्न होता है ।।२२।। निकटभव्यता, कर्मोकी हानि, संज्ञीपना और विशुद्ध परिणाम ये सम्यग्दर्शनके अन्तरंग कारण है और गुरुजनोंका उपदेश आदिक बाह्य कारण हैं ॥२३॥ उस सम्यग्दर्शनके उपशमसम्यक्त्व २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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