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उमास्वामि-श्रावकाचार बनेकान्तमयं यस्य मतं मतिमतां मतम् । सन्मतिः सन्मतिं कुर्यात्सन्मतिर्वो जिनेश्वरः ॥१ पूर्वाचार्यप्रणीतानि श्रावकाध्ययनान्यलम् । दृष्ट्वाऽहं श्रावकाचारं करिष्ये मुक्तिहेतवे ॥२ घरत्यपारसंसारदुःखादुदधृत्य यो नरान् । मोक्षेऽव्ययसुखे नित्ये तं धर्म विद्धि तत्त्वतः ॥३ सम्यग्दृग्बोधवृत्तानि विविक्तानि विमुक्तये। धर्म सागारिणामाहुर्धर्मकर्मपरायणाः ॥४ देवे देवमतिधर्म धर्मधोमलवजिता । या गुरौ गुरुताबुद्धिः सम्यक्त्वं तन्निगद्यते ।।५ अदेवे देवताबुद्धिरधर्मे बत धर्मधोः । अगुरी गुरुताबुद्धिस्तन्मिथ्यात्वं निगद्यते ॥६ झुत्पिपासा भयं द्वेषो रागो मोहो जरा रुजा। चिन्ता मृत्युर्मव: खेदो रतिः स्वेदश्च विस्मयः ॥७ विषादोजननं निदा दोषाएते सदस्तराः सन्ति यस्य न सोऽवश्यं देवस्त्रिभवनेश्वरः ।।८ विष्णः सवसमास वेवासमहेश्वरः।बद्धः स एव यः सर्वसरासरसोचतः ॥९ निर्मलः सर्ववित् सार्वः परमः परमेश्वरः । परंज्योतिर्जगद्भर्ता शास्ताऽऽतः परिगीयते ॥१० अपारापारसंसारसागरे पसतां नृणाम् । धारणाद धर्म इत्युक्तो व्यक्तं मुक्तिसुखप्रदः ॥११ क्षमाविवशभेदेन भिन्नात्मा भुक्तिमुक्तिदः । जिनोक्तः पालनीयोऽयं धर्मश्चेदस्ति चेतना ॥१२ जिस सन्मति श्रीवर्धमान स्वामीका मत अनेकान्तमय है और जो बुद्धिमानोंके मान्य हैं, ऐसे
दि (केवलज्ञान) के धारक सन्मति जिनेश्वर आप सब लोगोंकी सन्मति करें ॥२॥ में पूर्व आचार्योंसे रचे गये सर्व श्रावकाचार शास्त्रोंको भलीभांतिसे देखकर मुक्ति प्राप्तिके लिए इस श्रावकाचारकी रचना करूगा ॥२॥ जो मनुष्यको इस अपार संसार-सागरके दःखोंसे उद्धार करके नित्य और अविनाशी सखवाले मोक्षमें धरे, तत्त्वतः उसे धर्म जानना चाहिये ॥३॥ सम्यगदर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये पृथक्-पृथक् मुक्तिके लिए कारण हैं, धर्म-कर्ममें परायण पुरुषोंने यह श्रावकोंका धर्म कहा है ॥४॥ सत्यार्थ देवमें देवकी बुद्धि, मल-रहित निर्दोष धर्ममें धर्मकी बुद्धि और निष्परिग्रही निरारम्भी गुरुमें गुरुत्वकी बुद्धि होना यह सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन कहा गया है ।।५।। अदेवमें देवताको बुद्धि होना, अधर्ममें धर्म बुद्धि करना और अगुरुमें गुरु बुद्धि करना यह मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन कहा गया है ॥६॥ भूख प्यास भय द्वेष राग मोह जरा रोग चिन्ता मृत्यु मद खेद रति स्वेद (पसीना) विस्मय (आश्चर्य) विषाद जन्म और निद्रा ये अति दुस्तर अठारह दोष जिसके निश्चयसे नहीं हैं, वही सच्चा देव है, वही अवश्य ही तीनों लोकोंका स्वामी है, वही विष्णु है, वही ब्रह्मा है, वही देवोंका देव महेश्वर है, वही बुद्ध है, वही सुर-असुर से पूजित है। वही निर्मल, सर्वज्ञ, सर्वहितैषी, परम, परमेश्वर, परंज्योति, जगद्-भर्ता, शास्ता और आप्त कहा जाता है ॥७-१०॥ इस अपारावार संसार-सागरमें पड़े हुए जीवोंको धारण करनेसे 'धर्म' ऐसा नाम कहा गया है, यह धर्म प्रकट रूपसे मुक्तिके सुखका दाता है ।।११।। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दश भेदोंसे भिन्न स्वरूपवाला धर्म जिनदेवने कहा है, वह संसारके भोगोंको और मुक्तिके सुखोंको देता है। यदि धर्म-बुद्धिकी चेतना है, तो यह दश प्रकारका धर्म पालन करना चाहिये ॥१२॥ मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा प्रतिपादित और हिंसादि पापों से संयुक्त धर्म होता है ऐसा कहनेवाला भी प्राणी पापी है । अर्थात् जो यज्ञादिमें हिंसादि करने
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