SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लाटीसंहिता १२५ यथा सत्यमितः क्रोशः शतं यावद् गतिर्मम । क्रोशा मालवदेशीया क्षेत्रवृद्धिश्च दूषणम् ॥१२० स्मृतं स्मृत्यन्तराधानं विस्मृतं च पुनः स्मृतम् । दूषणं दिग्विरतेः स्यादनिर्णीतमियत्तया ॥१२१ प्रोचिता देशविरतिर्यावकालात्मवतिनी। तत्पर्यायाः क्षणं यामदिनमासत्तु वत्सराः ॥१२२ तद्विषयो गतित्यागस्तथा चाशनवर्जनम् । मैथुनस्य परित्यागो यद्वा मौनाविधारणम् ॥१२३ यथाद्य यदि गच्छामि प्राच्यामेवेति केवलम् । कारणानापि गच्छामि शेषदित्रितये वशात् ॥१२४ अथवा उनका जो मार्ग है वह बहुत ही लम्बा है । मर्यादासे बाहर ऐसे किसी देश या क्षेत्रमें किसी लोभके कारणसे जाना तिर्यग्व्यतिक्रम नामका अतिचार कहलाता है। व्रती श्रावकोंको ऐसा अतिचार नहीं लगाना चाहिये ॥११९।। यह ठीक है कि वह नगर यहाँसे सौ कोश है तथा यहाँसे सौ कोश तक जानेकी ही मेरी मर्यादा है परन्तु ये कोश मालव देशके कोश हैं इसको क्षेत्र वृद्धि नामका दोष कहते हैं । भावार्थ-देशके भेदसे कोशमें भी भेद होता है। जैसे उत्तरकी ओर (मेरठ सहारनपुरकी ओर) सोलह मीलके बारह कोश गिने जाते हैं परन्तु आगरेकी ओर सोलह मीलके आठ ही कोश होते हैं। कहीं कहीं पर तीन तीन मीलका भी एक कोश माना जाता है। जिस श्रावकने पहले सौ कोशकी मर्यादा नियत कर ली है वह श्रावक यदि काम पड़ने पर यह कहे कि कोश मालवदेशके कोशसे सम्भाले जायेंगे अथवा अन्य किसी देशके कोश मालवदेशके कोशसे भी बड़े हों और वह श्रावक वहाँके कोशोंसे अपनी मर्यादाके सौ कोश सम्भाले तो उसके क्षेत्र वृद्धि नामका दोष होता है क्योंकि पहले उसने साधारण या उस देशमें प्रचलित कोशोंसे मर्यादा नियत की थी और अब वह अपनी सौ कोशकी संख्याको तो नियत रखता है उसको तो नहीं बढ़ाता किन्तु कोशोंको बड़ा मानकर क्षेत्रकी मर्यादा बढ़ा लेता है अतएव व्रतका एक देश भंग होनेके कारण वह अतिचार या दोष कहलाता है। ऐसा दोष व्रती श्रावकको कभी नहीं लगाना चाहिए ॥१२०॥ जो मर्यादा नियत्त की थी वह पहले तो स्मरण थी, फिर कुछ दिन बाद उसे भूल गया अथवा नियत संख्याको भूल कर कोई और संख्या स्मरण हो आई ऐसे दोषको स्मृत्यन्तराधान कहते हैं। निश्चय न होनेके कारण व्रतका निश्चय भी नहीं हो सकता इसलिए यह दोष व्रतका एक देशभंग करनेवाला है। ऐसा अतिचार व्रती श्रावकको कभी नहीं लगाना चाहिए ॥१२१।। अब आगे देशव्रतका निरूपण करते हैं। किसी नियत समय तक त्याग करनेको देशविरति या देशव्रत कहते हैं। नियत समय तक अथवा थोड़े कालतकका अर्थ एक पहर, एक दिन, एक महीना, एक ऋतु या दो महीना अथवा एक वर्ष लेना चाहिए। भावार्थ-एक पहर, एक दिन, एक महीना, एक वर्ष आदि कालको मर्यादा नियत कर किसी भी पाप रूप क्रियाका त्याग करना देशविरति नामका व्रत कहलाता है ।।१२२।। इस व्रतका विषय गमन करनेका त्याग, भोजन करनेका त्याग, मैथुन करनेका त्याग अथवा मौन धारण करना आदि है। भावार्थ-यहाँ पर देश शब्दका अर्थ एकदेश है, व्रती श्रावकने जो जो व्रत धारण कर रक्खे हैं उनमें जन्म भरके लिए जिन जिन पापरूप क्रियाओंका त्याग कर रक्खा है उन पापरूप क्रियाओंको किसी कालकी मर्यादा नियत कर और अधिक त्याग कर देना देशवत है। यह व्रत समस्त व्रतोंको मर्यादाका और संक्षेप करता है, परन्तु करता है कुछ कालके लिये; इसीलिये इसको देशव्रत कहते हैं ॥१२३॥ जैसे यदि आज मैं कहीं जाऊंगा तो केवल पूर्व दिशामें ही जाऊंगा। यदि आज मुझे जानेके लिये कोई विशेष कारण भी मिल जायगा तो भी में बाकीको तीन दिशाओंमें नहीं जाऊंगा ॥१२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy