SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ श्रावकाचार संग्रह सुवासित करनेवाले पान, इलायची, जल औषधिके सिवाय अन्य सब नहीं खाना चाहिए। पानी छानकर उपयोगमें लाना चाहिए । जिनपूजन करना चाहिए। श्रद्धा और शक्ति के अनुरूप जिना - लय, स्वाध्यायशाला, औषधालय, भूखोंके लिए भोजनालय आदि बनवाना चाहिए। जो नामसे या स्थापनासे भी जैन हैं वह पात्र है उसकी सहायता करनी चाहिए तथा अपनी कन्याका विवाह साधर्मी के साथ ही करना चाहिए । मुनियोंको गुणवान बनानेका प्रयत्न करना चाहिए। यह सब उपदेश आजके श्रावको के लिए बहुत ही उपयोगी है | श्रावकके व्रतसम्बन्धी आचारका वर्णन तो सभी श्रावकाचारोंमें है किन्तु उन्हें अपना जीवनयापन कैसे करना चाहिए, गार्हस्थिक विवाहादि कार्य किस प्रकार करना चाहिए, कन्यादान किसे करना चाहिए, साधर्मियोंके प्रति क्या करना चाहिए, यह सब कथन इससे पूर्वके श्रावकाचारोंमें नहीं है । हिन्दू धर्मशास्त्र के विविध विषयोंमें वर्णोंके कर्तव्य, उनकी अयोग्यता, संस्कार, उपनयन, आश्रम, विवाह, भोजन, दान, वानप्रस्थ, संन्यास और तोर्थयात्रादि भी हैं तथा उत्तराधिकार आदि भी हैं । ये सब क्रियाएँ गृहस्थोंके दैनंदिन कर्तव्योंसे सम्बद्ध है। पं० आशाधरजीने अपने सागारधर्मामृतमें प्रायः इन सभीको लिया है । धर्ममें वर्णोंका अधिकार बतलाते हुए वह कहते हैं जिसका उपनय संस्कार हुआ है वह द्विज - ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य सम्यक्त्वसे विशुद्धबुद्धि होनेपर जीवनपर्यन्तके लिए मद्यपान आदि महापापोंका त्याग करनेपर वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा उपदिष्ट उपासकाध्ययन आदिके श्रवण करनेका अधिकारी होता हैं ( २।१९ ) । तथा शूद्र भी आसन आदि उपकरण, मद्य आदिका त्याग और शरीरकी शुद्धिसे विशिष्ट होनेपर जिनधर्म के श्रवणका अधिकारी होता है क्योंकि वर्णसे हीन होनेपर भी आत्मा काललब्धि आनेपर अर्थात् धर्माराधनकी योग्यता होनेपर श्रावकधर्मका आराधक होता है (२२२ ) । पं० आशाधरजी ने अपने अनगारधर्मामृत (४।१६७) में एषणा समितिका स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि विधिपूर्वक अन्यके द्वारा दिये गये भोजनको साधु ग्रहण करता है । अपनी टीकामें उन्होंने 'अन्यैः' का अर्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और सत् शूद्र किया है । इसका मतलब यह हुआ कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यकी तरह सत् शूद्र भी आहारदान दे सकता है । आशाधरजी से पूर्ववर्ती आचार्य सोमदेवने भी अपने उपासकाध्ययनमें कहा है दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिताः । मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः ॥ ७९१ || अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन वर्ण दीक्षाके योग्य हैं किन्तु आहारदानके योग्य चारो हैं; क्योंकि सभी प्राणियोंको मानसिक, वाचनिक और कायिक धर्म पालनेकी अनुमति है । इन्हीं सोमदेव आचार्यने अपने नीतिवाक्यामृतमें एक बार विवाह करनेवालेको सत् शूद्र कहा है । वही आहारदानका अधिकारी है । आगे उन्होंने लिखा है— 'आचारानवद्यत्वं शुचिरूपस्करः शारीरी च विशुद्धिः करोति शूद्रमपि देवद्विजतपस्वीकर्मसु योग्यम् ||१२|| ' अर्थात् आचारकी निर्दोषता, घर और उपकरणोंकी पवित्रता तथा शारीरिक विशुद्धि शूद्रको भी देव, द्विज और तपस्वी जनोंके परिकर्मके योग्य बनाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy