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________________ प्रधान सम्पादकीय ११ गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, अक्षत आदिसे जिनपूजा करना द्रव्यपूजा है और मनको उसमें लगाना भावपूजा है । पूजाके ये प्रकार भी पूर्व धावकाचारोंमें नहीं हैं । इसी अध्यायमें आगे सप्त व्यसनके दोष और मीनके गुण वर्णित है। तेरहवें में विनय आदि तपोंका, चौदहवें में बारह भावनाओंका और पन्द्रहवें में ध्यानका विस्तृत वर्णन है । इस तरह् ये श्रावकाचार, विविध विषयोंके वर्णनकी दृष्टिसे, विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । मुनिजन भी इसके स्वाध्यायसे लाभान्वित हो सकते हैं । ५. इसके पश्चात् वसुनन्दी श्रावकाचार प्राकृत गाथाओं में रचा गया है। यह श्रावकाचार भी कई दृष्टियोंसे विशेष महत्त्वपूर्ण है । इसमें जो ग्यारहवीं प्रतिमाका वर्णन है वह अपना विशेष स्थान रखता है । इसमें उसके दो भेद किये हैं एक वस्त्रधारी और दूसरा कौपीनमात्रधारी । आगे इन दोनोंकी चर्या भी बतलायी है। अमितगतिकी तरह इसमें भी ग्यारह प्रतिमाके पश्चात् विनय, वैयावृत्य और व्रतोंका वर्णन है । तत्पश्चात् पूजाका वर्णन करते हुए लिखा है- हुण्डावसर्पिणीकालमें असद्भाव स्थापना या अतदाकार स्थापना रूप पूजा नहीं करना चाहिए । आगे संक्षेपमें प्रतिमा-प्रतिष्ठा विधान भी है। इसमें द्रव्यपूजाके तीन भेद किये हैं- सचित्त अचित्त और मिश्र । प्रत्यक्ष उपस्थित जिन भगवान् और गुरु आदिकी पूजा सचित्त पूजा है । उनके शरीरकी और द्रव्यश्रुत (शास्त्र) की पूजा अचित्त पूजा है । और दोनोंकी पूजा मिश्र पूजा है । आगे पुजाका फल वर्णन करते हुए कहा है- जो मनुष्य धनियेके पत्तेके बराबर जिनभवन बनाकर उसमें सरसों के बराबर भी जिन प्रतिमा स्थापित करता है वह तीर्थङ्कर पद पानेके योग्य पुण्यबन्ध करता है । आचार्य अमितगतिने अपने सुभाषितरत्नसन्दोहमें भी ऐसा ही कहा है, उसीका अनुसरण वसुन्दी किया है । ६. उक्त श्रावकाचारोंके पश्चात् विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी में पं० आशाधरने अपने धर्मामृतके दूसरे भागके रूपमें सागारधर्मामृतकी रचना की और उसपर भव्य कुमुदचन्द्रिका टीका और ज्ञानदीपिका पंजिका रची। आशाधर एक बहुश्रुत विद्वान थे । उन्होंने अपने समयमें उपलब्ध समग्र साहित्यका अवलोकन किया था । उनकी टीकाओंमें जो पूर्वग्रन्थोंके उद्धरण पाये जाते हैं उनसे इसका समर्थन होता है । उनका सागारधर्मामृत पूर्व श्रावकाचारोंका निःस्यन्द जैसा है । वह बहुत व्यवस्थित है । उसीमें प्रथम बार स्पष्ट रूपसे श्रावकके पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक भेद मिलते हैं जो महापुराण में वर्णित पक्ष, चर्या और साधन पर प्रतिष्ठित हैं। दूसरे अध्यायमें पाक्षिकका, आठवें में साधकका और मध्यके शेष अध्यायोंमें नैष्ठिकका वर्णन है । विशेषताकी दृष्टिसे प्रथम दो अध्याय तथा छठा अध्याय उल्लेखनीय है । प्रथम अध्याय में श्रावकधर्मका पालन करनेके लिये कौन अधिकारी है, यह विशेष कथन है तथा छठें अध्यायमें श्रावककी दिनचर्याका वर्णन है । किसी भी अन्य श्रावकाचार में यह कथन नहीं है, हाँ, श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रके योगशास्त्रमें यह सब कथन है । सागारधर्मामतकी कई अन्य चर्चाओं पर भी योगशास्त्रका प्रभाव है । दूसरे अध्याय पाक्षिक श्रावकका कथन विस्तारसे है । जिसे जैनधर्मका पक्ष है वह पाक्षिक है। आजका जैन समाज प्रायः पाक्षिक की ही श्रेणीमें आता है। पाक्षिकको जिनदेवके वचनोंपर श्रद्धा रखते हुए मद्यमांस मधु और पाँच उदुम्बर फलोंके सेवनका त्याग करना चाहिए | रात्रिमें केवल मुखको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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