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________________ लाटीसंहिता समिणः सहायाश्च स्पष्टाक्षरं वाकपाटवम् । सौष्ठवं चक्षुरादीनां मनीषा प्रतिभान्विता ॥४७ सुयशः सर्वलोकेऽस्मिन् शरविन्दुसमप्रभम् । शासनं स्यादनुल्लंघ्यं पुण्यभाजां न संशयः ॥४८ विजयः स्यादरिध्वंसात्प्रतापस्तच्छिरोनतिः । दण्डाकर्षोऽप्यरिभ्यश्च सर्व सत्पुण्यपाकतः ॥९ चक्रित्वं सन्नृपत्वं वा नहि पुण्याहते क्वचित् । अकस्मावबलालाभो धनलाभोऽप्यचिन्तनात् ॥५० ऐश्वयं च महत्त्वं व सौहार्द सर्वमान्यता । पुण्यं विना न कस्यापि विद्याविज्ञानकौशलम् ॥५१ अथ कि बहुनोक्तेन त्रैलोक्येऽपि च यत्सुखम् । पुण्यायतं हि तत्सर्व किञ्चित्पुण्यं विना नहि ॥५२ तत्प्रसीदाधुना प्राज्ञ मद्वचः शृणु फामन । सर्वामयविनाशाय पिब पुण्यरसायनम् ॥५३।। प्रोवाच फार नो नाम्ना श्रावकः सर्वशास्त्रवित् । पुण्यहेतो परिजाते तत्कर्तुमपि चोत्सहेत ।।५४ शृणु श्रावक पुण्यस्य कारणं वच्मि साम्प्रतम् । देशतो विरतिर्नाम्नाणुव्रतं सर्वतो महत् ॥५५ ननु विरतिशब्दोऽपि साकांक्षो व्रतवाचकः । केभ्यश्च कियन्मात्रेभ्यः कतिभ्यः सा वदाध नः ।।५६ धारण करनेके लिये शुभ भावनाओंका होना, सूत्रोंका या समस्त जैनशास्त्रोंका अर्थ समझने योग्य या दूसरोंको प्रतिपादन करने योग्य अपने ज्ञानकी शक्तिका प्राप्त होना, रत्नत्रयका उपदेश देनेवाले गुरुका सहवास प्राप्त होना, धर्मात्मा पुरुषोंका साथ होना अथवा धर्मात्मा पुरुषोंकी सहायता प्राप्त होना, स्पष्ट अक्षरोंका उच्चारण होना, वचनोंके कहनेकी चतुरता प्राप्त होना, नेत्र, नाक, कान आदि इन्द्रियोंको सुन्दरता प्राप्त होना, प्रतिभाशाली बुद्धिका प्राप्त होना, शरद ऋतुके चन्द्रमाके समान अत्यन्त निर्मल और समस्त लोकमें व्याप्त होनेवाला सुयशका मिलना और जिसका कोई भी उल्लंघन न कर सके ऐसे शासनका प्राप्त होना आदि सब पुण्यवान् पुरुषोंको ही प्राप्त होता है इसमें सन्देह नहीं है ।।४६-४८॥ बड़े-बड़े महायुद्धोंमें समस्त शत्रुओंको नाशकर विजय प्राप्त करना, वे सब शत्रुराजा अपना मस्तक झुकाकर नमस्कार करने लगें ऐसा प्रताप प्राप्त होना और समस्त शत्रु राजाओंसे दण्ड वसूल करना आदि सब श्रेष्ठ पुणके ही फलसे प्राप्त होता है ॥४९॥ पुण्य कर्मके उदयके विना न तो कभी चक्रवर्ती पद प्राप्त होता है और न कभी श्रेष्ठ राजा होता है। अकस्मात् स्त्रीका प्राप्त हो जाना, विना ही इच्छाके धन प्राप्त हो जाना, ऐश्वर्य या विभूतियोंका प्राप्त होना, बड़प्पन प्राप्त होना, सबके साथ मित्रता प्राप्त होना, समस्त लोकमें माननीय उत्तमपद प्राप्त होना, श्रेष्ठ विद्या, विज्ञान और कुशलता प्राप्त होना आदि समस्त सुखकी सामग्री विना पुण्यके किसीको भी प्राप्त नहीं होती है ॥५०-५१॥ बहुत कहनसे क्या ? थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि तीनों लोकोंमें जितना भी सांसारिक सुख है वह सब पुण्य कर्मके ही उदयसे प्राप्त होता है। विना पुण्यके किंचित्मात्र भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता ॥५२॥ इसलिए हे बुद्धिमान और विद्वान् फामन ! तू अब प्रसन्न हो और मेरी बात सुन! तू अब संसारबन्धी समस्त रोगोंको (संसारके दुःखोंको) दूर करनेके लिए पुण्यरूपी रसायन पो ॥५३|| यह बात सुनकर समस्त शास्त्रोंका जाननेवाला फामन नामका श्रावक कहने लगा कि पुण्यके कारणोंको जान लेनेपर ही तो कोई भी श्रावक उसके करनेके लिए तैयार हो सकता है ।।५४। इसके उत्तरमें ग्रन्थकार कहने लगे कि हे श्रावकोत्तम फामन ! सुन । मैं अब आगे पुण्यके कारणोंको बतलाता हूँ। पाँचों पापोंका एकदेश त्याग करना अणुव्रत है और (उन्हीं पांचों पापोंका) पूर्णरीतिसे त्याग करना महाव्रत है ॥५५॥ यह सुनकर फामन कहने लगा कि व्रतोंको कहनेवाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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