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________________ श्रावकाचार-संग्रह सम्यग्दृशाऽथ मिथ्यात्वशालिनाऽप्यथ शक्तितः । अभव्येनापि भव्येन कर्तव्यं व्रतमुत्तमम् ॥३७ यतः पुण्यक्रिया साध्वी क्वापि नास्तीह निष्फला । यथापात्रं यथायोग्यं स्वर्गभोगादिसत्फला ॥३८ पारम्पर्येण केषांचिदपवर्गाय सत्क्रिया । पञ्चानुत्तरविमाने मुदे ग्रैवेयकादिषु ॥ ३२ केषांचित्कल्पवासादिश्रेयसे सागरावधि । भावनादित्रयेषूच्चैः सुधापानाय जायते ॥४० मानुषाणां च केषाञ्चितीर्थंकरपदाप्तये । चक्रित्वार्यार्द्धचक्रित्वपदसम्प्राप्तिहेतवे ॥४१ उत्तमभोगभूषूच्चैः सुखं कल्पतरूद्भवम् । एतत्सर्वमहं मन्ये श्रेयसः फलितं महत् ॥४२ सत्कुले जन्म दीर्घायुर्वपुर्गाढं निरामयम् । गृहे सम्पदपर्यन्ता पुण्यस्यैतत्फलं विदुः ॥४३ साध्वी भार्या कुलोत्पन्ना भर्तुश्छन्दानुगामिनी । सूनवः पितुराज्ञायाः मनागचलिताशयाः ॥४४ सघमं भ्रातृवर्गाश्च सानुकूलाः सुसंहताः । स्निग्धाश्चानुचरा यावदेतत्पुण्यफलं जगुः ॥४५ जैनधर्मे प्रतीतिश्च संयमे शुभभावना । ज्ञानशक्तिश्च सूत्रार्थे गुरवश्चोपदेशकाः ॥४६ ८२ अच्छी तरह समझकर और उसपर पूर्ण यथार्थं श्रद्धान रखकर इस लोक और परलोककी विभूतियों को प्राप्त करने के लिये व्रतोंका संग्रह अवश्य करना चाहिये ||३६|| इसलिए सम्यग्दृष्टिको या मिथ्यादृष्टिको, भव्य जीवको अथवा अभव्य जीवको सबको अपनी शक्तिके अनुसार उत्तम व्रत अवश्य पालन करने चाहिये ||३७|| इसका भी कारण यह है कि पुण्य प्राप्त करनेवाली व्रतरूप श्रेष्ठक्रिया कभी निष्फल नहीं होती । व्रत पालन करनेवाला जैसा पात्र हो और जैसी योग्यता रखता हो उसीके अनुसार उसे स्वर्गादिकके भोगोपभोग रूप उत्तम फल प्राप्त होते हैं ||३८|| इन्हीं महाव्रतादिक व्रतरूप क्रियाओंके पालन करनेसे कितने ही जीवोंको परम्परासे मोक्ष प्राप्त हो जाती है अथवा नव ग्रैवयकोंके सुख वा विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, सर्वार्थसिद्धि इन पंच अनुत्तर विमानोंके सुख प्राप्त होते हैं ||३९|| अथवा कितने ही जीवोंको सोलह स्वर्गीके सुख प्राप्त होते हैं । वहाँपर वे सागरोंपर्यन्त इन्द्रियजन्य सुखोंका अनुभव करते रहते हैं और अमृतपान किया करते हैं तथा कितने ही जीव उन व्रतोंके प्रभावसे भवनवासी व्यन्तर ज्योतिष्क देवोंमें उत्पन्न होकर अपनी आयुपर्यन्त अमृतपान किया करते हैं ||४०|| उत्तम व्रत पालन करनेवाले सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको मनुष्य पर्याय में भी तीर्थंकर पद प्राप्त होता है, चक्रवर्ती पद प्राप्त होता है, अथवा अर्द्धचक्रवर्ती पद प्राप्त होता है || ४१ | | अथवा व्रत पालन करने से उत्तम भोगभूमिमें कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए उत्तमोत्तम सुख प्राप्त होते हैं ऐसे-ऐसे महाफलोंका प्राप्त होना या अनुक्रमसे समस्त फलोंका प्राप्त होना आदि सब व्रत पालन करने रूप श्रेष्ठ क्रियाओंका ही फल है ऐसा ग्रन्थकार मानते हैं ||२|| श्रेष्ठ कुलमें जन्म होना, बड़ी आयुका प्राप्त होना, नीरोग और बलवान् शरीर प्राप्त होना और घरमें अपार लक्ष्मीका प्राप्त होना आदि सब व्रत करनेसे प्राप्त हुए पुण्यका ही फल समझना चाहिए ||४३|| उत्तम कुल में उत्पन्न हुई, पतिके आज्ञानुसार चलनेवाली और अच्छे स्वभाववाली स्त्रीका प्राप्त होना पुण्यका ही फल समझना चाहिये । पिताकी आज्ञासे जिनका मन किंचित्मात्र भी चलायमान न हो ऐसे पुत्रोंका प्राप्त होना भी पुण्यका फल कहा जाता है । अपने धर्मको अच्छी तरहसे पालन करनेवाले, अपने अनुकूल रहनेवाले और सब मिलकर इकट्ठे रहनेवाले ऐसे भाई-बन्धुओंका प्राप्त होना भी पुण्यका फल कहा जाता है तथा अपनेपर सदा प्रेम और भक्ति करनेवाले सेवकोंका प्राप्त होना भी पुण्यका फल कहा जाता है। इस प्रकार सुख देनेवाली सब कुटुम्बकी सामग्रीका प्राप्त होना व्रत पालन करने रूप पुण्यका फल कहा जाता है ||४४-४५ || जैनधर्म में श्रद्धान होना, संयम 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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