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________________ ७४ श्रावकाचार-संग्रह उपबृंहणमत्रास्ति गुणः सम्यग्हगात्मनः । लक्षणादात्मशक्तीनामवश्यं बृंहणादिह ॥२७३ आत्मशक्तेरदौर्बल्यकरणं चोपबृंहणम् । अर्थादृग्ज्ञप्तिचारित्रभावास्खलनं हि तत् ॥२७४ जाननप्येष निःशेषात्पौरुषं नात्मदर्शने । तथापि यत्नवानत्र पौरुषं प्रेरयन्निव ॥२७५ नायं शुद्धोपलब्धौ स्याल्लेशतोऽपि प्रमादवान् । निष्प्रमादतयात्मानमाददानः समादरात् ॥२७६ यद्वा शुद्धोपलब्धार्थमभ्यसेदपि तद्बहिः । सत्क्रियां काञ्चिदप्यर्थात्तत्साध्यानुपयोगिनाम् ॥२७७ रसेन्द्र सेवमानोऽपि काम्यपथ्यं न वाचरेत् । आत्मनोऽनुल्लाघतामुज्झन्नोज्झन्नुल्लाघतामपि ॥२७८ यद्वा सिद्धं विनायासात्स्वतस्तत्रोपबृंहणम् । ऊर्ध्वमूद्ध्वं गुणश्रेणी निर्जरायाः सुसम्भवात् ॥२७९ अवश्य भाविनी तत्र निर्जरा कृत्स्नकर्मणाम् । प्रतिसूक्ष्मक्षणं यावदसंख्येयगुणक्रमात् ॥२८० न्यायादायातमेतद्वै यावतांशेन तक्षितौ। वृद्धिः शुद्धोपयोगस्य वृद्धिर्वृद्धिः पुनः पुनः ॥२८१ यथा यथा विशुद्धिः स्यावृद्धिरन्तःप्रकाशिनी। तथा तथा हृषीकानामुपेक्षा विषयेष्वपि ॥२८२ ततो भूम्नि क्रियाकाण्डे नात्मशक्ति स लोपयेत् । किन्तु संवर्द्धयन्नूनं यत्नादपि च दृष्टिमान् ।।२८३ उपबृंहणनामापि गुणः सद्दर्शनस्य यः । गणितो गणनामध्ये गुणानां नागुणाय च ॥२८४ सुस्थितीकरणं नाम गुणः सद्दर्शनस्य यः । धर्माच्च्युतस्य धर्मे तन्नाधर्मे धर्मिणः क्षतेः ॥२८५ कभी नहीं होता ॥२७२॥ सम्यग्दृष्टि जीवका उपबृंहण नामका भी एक गुण है। आत्मीक शक्तियों की नियमसे वृद्धि करना यह इसका लक्षण है ॥२७३॥ आत्माकी शुद्धि में दुर्बलता न आने देना या उसकी पुष्टि करना उपबृंहण है । अर्थात् आत्माको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप भावसे च्युत नहीं होने देना ही उपबृंहण है ॥२७४।। यह जीव जानता हुआ भी आत्मसाक्षात्कारके विषयमें पूरी तरहसे पुरुषार्थ नहीं कर पाता। तथापि पुरुषार्थकी प्रेरणा देता हुआ ही मानो इस विषयमें प्रयत्नवान् रहता है ।।२७५॥ यह शुद्धोपलब्धिमें रंचमात्र भी प्रमादी नहीं होता है किन्तु प्रमादरहित होकर आदरसे आत्मीक कार्यों में लगा रहता है ॥२७६।। अथवा शुक्रोफ्लब्धिके लिये यह उस आत्मीक कार्य में उपयोगी पड़नेवाली किहीं बाहरी सत्क्रियाओंका भो अभ्यास करता है ॥२७७।। जैसे पारद भस्मको सेवन करता हुआ भी कोई पुरुष पथ्य करता है और कोई पुरुष पथ्य नहीं भी करता है। जो पथ्य करता है वह अपने रोगसे मुक्ति पा लेता है और जो पथ्य नहीं करता है वह अपनी नीरोगताको भी खो बैठता है। वैसे ही प्रकृतमें जानना चाहिये ॥२७८॥ अथवा सम्यग्दृष्टिके बिना ही प्रयत्नके स्वभावसे उपबृंहण गुण होता है, क्योंकि इसके ऊपर गुणश्रेणी निर्जरा पाई जाती है ।।२७९।। इसके समस्त कर्मोकी प्रतिसमय असंख्यात गुण क्रमसे निर्जरा अवश्य होती रहती है ॥२८०। इसलिये यह बात युक्तिसे प्राप्त हुई कि इसके जित्तने रूपमें कर्मोका क्षय होता है उतनी शुद्धोपयोगकी वृद्धि होती है । इस प्रकार वृद्धिके बाद वृद्धि बराबर होती जाती है ॥२८१।। इसके जैसे जैसे विशुद्धिकी भीतर प्रकाश देनेवाली वृद्धि होती है वैसे वैसे इन्द्रियोंके विषय में भी इसके उपेक्षा होती जाती है ।।२८२॥ इसलिये बड़े भारी क्रियाकाण्डमैं वह सम्यग्दृष्टि अपनी शक्तिको न छिपावे। किन्तु प्रयत्नसे भी अपनी शक्तिको बढ़ाके ॥२८३।। इस प्रकार सम्यग्दर्शनका जो उपबृंहण नामका गुण है वह भी गुणोंकी गणनामें आ जाता है। वह दोषाधायक नहीं है ॥२८४॥ सम्यग्दृष्टिका एक स्थितीकरण नामका गुण है । जो धर्मसे च्युत हो गया है उसका धर्ममें स्थित करना स्थितीकरण है। किन्तु अधर्मसे च्युत हुए . जीवको अधर्ममें स्थित करना स्थितीकरण नहीं है ॥२८५।। कितने ही अल्पज्ञानी भावी धर्मकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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