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________________ ७३ लाटीसंहिता किञ्च सद्दर्शनं हेतुः संविच्चारित्रयोद्धयोः। सम्यग्विशेषणस्योच्चैर्यद्वा प्रत्यग्रजन्मनः ॥२६४ अर्थोऽयं सति सम्यक्त्वे ज्ञानचारित्रमत्र यत् । भूतपूर्व भवेत्सम्यक् सूते वाऽभूतपूर्वकम् ॥२६५ शुद्धोपलब्धिशक्तिर्या लब्धिज्ञानातिशायिनी । सा भवेत्सति सम्यक्त्वे शुद्धो भावोऽथवापि च ॥२६६ यत्पुनद्रव्यचारित्रं श्रुतज्ञानं विनापि दृक् । न तदज्ञानं न चारित्रमस्ति चेत्कर्मबन्धकृत ॥२६७ तेषामन्यतमोद्देशो नालं दोषाय जातुचित् । मोक्षमागैकसाध्यस्य साधकानां स्मृतेरपि ॥२६८ बन्धो मोक्षश्च ज्ञातव्यः समासात्प्रश्नकोविदः । रागांशबन्ध एव स्यानारागांशः कदाचन ॥२६९ उक्तं चयेनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥२२ येनांशेन तु ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥२३ येनांशेन चारित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥२४ उक्तो धर्मस्वरूपोऽपि प्रसङ्गात्सङ्गतोऽशतः । कविलब्धावकाशस्तं विस्तराद्वा करिष्यति ॥२७० देवे गुरौ तथा धर्मे दृष्टिस्तत्त्वार्थदर्शिनी । ख्याताप्यमूढदृष्टिः स्यादन्यथा मूढदृष्टिता ॥२७१ सम्यक्त्वस्य गुणोऽप्येष नालं दोषाय लक्षितः । सम्यग्दृष्टियतोऽवश्यं यथा स्यान्न तथेतरः ॥२७२ - अखण्डित हैं ॥२६३॥ दूसरी बात यह है कि सम्यग्दर्शन यह ज्ञान और चारित्र इन दोनोंमें सम्यक विशेषणका हेतु है। अथवा जो ज्ञान और चारित्र नूतन होते हैं उनमें सम्यक् विशेषणका एकमात्र यही हेतु है ॥२६४॥ इसका यह अभिप्राय है कि पहलेका जो ज्ञान और चारित्र होता है वह सम्यग्दर्शनके होनेपर समीचीन हो जाता है । अथवा सम्यग्दर्शन यह अभूतपूर्वज्ञान और चारित्रको जन्म देता है ॥२६५।। शुद्ध आत्माके जाननेकी शक्ति जो कि ज्ञानमें अतिशय लानेवाली लब्धिरूप है वह सम्यक्त्वके होनेपर ही होती है । अथवा शुद्धभाव भी सम्यक्त्वके होनेपर ही होता है ॥२६६।। और जो द्रव्य चारित्र और श्रुतज्ञान है वह यदि सम्यग्दर्शनके विना होता है तो वह न ज्ञान है न चारित्र है। यदि है तो केवल कर्मबन्ध करनेवाला है ॥२६७|| इसलिये इन तीनोंमेंसे किसी एकको कथन करना कभी भी दोषाधायक नहीं है, क्योंकि मोक्षमार्ग एक साध्य है और ये तीनों इसके साधक माने गये हैं ॥२६८।। प्रश्नके अभिप्रायको जाननेवाले पुरुषोंको संक्षेपमें बन्ध और मोक्षका स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये कि रागांशरूप परिणामोंसे बन्ध होता है और रागांशरूप परिणामोंके नहीं रहनेसे कभी भी बन्ध नहीं होता ॥२६९॥ कहा भी है-'जिस अंशसे यह सम्यग्दृष्टि है उस अंशसे इसके बन्ध नहीं होता है। किन्तु जिस अंशसे राग है उस अंशसे इसके बन्ध अवश्य होता है ॥२२॥ जिस अंशसे ज्ञान है, उस अंशसे उसके कर्मबन्ध नहीं होता, किन्तु जिस अंशसे राग है, उस अंशसे कर्म-बन्ध होता है ॥२३॥ जिस अंशसे चारित्र है, उस अंशसे उसके कर्म-बन्ध नहीं होता, किन्तु जिस अंशसे राग है, उस अंशसे कर्म-बन्ध होता है ॥२४॥ ___ इस प्रकार प्रसंगवश संक्षेपसे युक्तियुक्त धर्मका स्वरूप कहा। कवि यथावकाश उसका विस्तारसे कथन आगे करेगा ॥२७०। समस्त कथनका सार यह है कि देव, गुरु और धर्ममें यथार्थताको देखनेवाली दृष्टि ही अमूढदृष्टि कही गयी है और इससे विपरीत दृष्टि ही मूढ़ दृष्टि है ॥२७१॥ यह भी सम्यक्त्वका गुण है। यह किसी प्रकार भी दोषकारक नहीं है, क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि है वह नियमसे अमूढदृष्टि होता है और जो सम्यग्दृष्टि नहीं है वह अमूढ़ दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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