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श्रावकाचार-संग्रह
वस्त्र नाणकपुस्तादिन्यस्तजीवच्छिदादिकम् । न कुर्याच्यक्तपार्पाद्धस्तद्धि लोकेऽपि गहितम् ॥२२ कन्यादूषणगान्धर्वविवाहादि विवर्जयेत् । परस्त्रीव्यसनत्यागवतशुद्धिविधित्सया ॥२३ व्रत्यते यदिहामुत्राप्यपायावद्यकृत्स्वयम् । तत्परेऽपि प्रयोक्तव्यं नैव तद्वतशुद्धये ॥२४ अनारम्भवधं मुञ्चेच्चरेन्नारम्भमुदधुरम् । स्वचाराप्रतिलोम्येन लोकाचारं प्रमाणयेत् ॥ २५ व्युत्पादयेत्तरां धर्मे पत्नीं प्रेम परं नयन् । सा हि मुग्धा विरुद्धा वा धर्माद् भ्रंशयते तराम् ||२६ स्त्रीणां पत्युरुपेक्षैव परं वैरस्य कारणम् । तन्नोपेक्षेत जातु स्त्रीं वाञ्छंल्लोकद्वये हितम् ॥२७ नित्यं भर्तृमनीभूय वर्तितव्यं कुलस्त्रिया । धर्मश्रीशमंकोक केतनं हि पतिव्रताः ॥२८
वालेके अचौर्यव्रत निरतिचार कहाँपर हो सकता हैं । भावार्थ - उत्तराधिकारीके मौजूद रहनेपर भी ( राजसत्ताके बलसे ) अपने भाईबन्दके स्वत्वके धनको ग्रहण करना अथवा अधिकारी भाई आदि सम्पत्तिको छिपा लेना चौर्यव्यसनत्यागवतके अतिचार हैं ॥ २१ ॥ शिकार व्यसनका त्यागी वस्त्र, सिक्का, काष्ठ और पाषाण आदि शिल्पमें बनाये गये जोवोंके चित्रोंके छेदनादिक को नहीं करे, क्योंकि वह वस्त्रादिकमें बनाये गये चित्रोंका छेदन भेदन लोकमें भी निन्दित है । भावार्थ – वस्त्रमें छपे हुए, सिक्कोंमें उकरे हुए, चित्रोंमें अंकित, तथा धातु, काष्ठ वा हाथीदाँत आदिसे बने हुए जीवोंके आकारोंको चीरना, तोड़ना, फोड़ना, फाड़ना आदि शिकार व्यसनत्यागवतके अतिचार हैं। क्योंकि ऐसा करना व्यावहारिक लोगोंकी दृष्टिमें भी बुरा माना जाता है ||२२|| परस्त्री व्यसनका त्यागी श्रावक परस्त्रीव्यसनके त्यागरूपव्रत की शुद्धिको करने की इच्छासे कन्याके लिये दूषण लगानेको और गान्धर्वविवाह आदि करनेको छोड़े । विशेषार्थ - माता पिता और बन्धुजनोंकी सम्मति बिना ही वर और वधू परस्परके अनुरागसे जो विवाह कर लेते हैं उसे गन्धर्वविवाह कहते हैं और कन्याका हरण करके जो विवाह किया जाता है उसे हरणविवाह कहते हैं । परस्त्रीके त्यागीको ऐसे कार्य नहीं करना चाहिए ||२३|| इस लोकमें और परलोकमें भी अकल्याण तथा निन्दाको करनेवालो जो वस्तु स्वयं संकल्पपूर्वक छोड़ दी वह वस्तु उस व्रतकी निर्मलता के लिये दूसरे प्राणीके विषयमें भी प्रयुक्त नहीं की जानी चाहिये । भावार्थइस लोक में निन्दनीय और परलोकमें पापजनक जिस वस्तुका त्याग स्वयं किया है उस वस्तुका दूसरेके प्रति भी प्रयोग नहीं करना चाहिए || २४|| दर्शनिक श्रावक कृष्यादि आरम्भसे अन्यत्र चलने फिरने, उठने बैठने आदिसे होनेवाली हिंसाको छोड़े, जिस आरम्भका सम्पूर्ण भार अपनेको ही उठाना पड़े ऐसे आरम्भको नहीं करे तथा अपने द्वारा ग्रहण किये गये व्रतोंके घात बिना लौकिक आचारको प्रमाण माने । भावार्थ- दर्शनिक श्रावकको आवश्यक कृषि आदि क्रिया आरम्भको छोड़कर समस्त सङ्कल्पी हिंसाका त्याग कर देना चाहिये । खेती आदिक भी स्वयं नहीं करना चाहिये । तथा लोकाचारको प्रमाण मानकर लौकिक व्यवहार करना चाहिये ||२५|| दर्शनिक श्रावक विशेष प्रेमको करता हुआ अपनी स्त्रीको धर्ममें अन्य कुटुम्बियों की अपेक्षा अधिक व्युत्पन्न करे क्योंकि मूर्ख अथवा अपनेसे विरुद्ध स्त्री धर्मसे पुरुषको परिवार के अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक भ्रष्ट कर देती है ॥२६॥ स्त्रियोंके पतिका अनादर ही विशेष वैरका कारण होता है, इसलिये इसलोक और परलोकमें सुखको चाहनेवाला पुरुष कभी भी स्त्रीको उपेक्षाकी दृष्टिसे नहीं देखे ||२७|| कुलीन स्त्रीको सदा पतिके चित्तके आचरण करना चाहिये । क्योंकि पतिव्रता स्त्रियाँ धर्म, विभूति, सुख वा ध्वजा होती हैं ||२८|| दर्शनिक श्रावक स्त्रीको अन्नको तरह शारीरिक तथा
अनुकूल होकर ही कीर्तिका एक घर या मानसिक सन्तापकी
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