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________________ सागारधर्मामृत २५ द्यूताद्धर्मतुजो बकस्य पिशितान्मद्याद्यदूनां विपच्चारोः कामुकया शिवस्य चुरया यद्ब्रह्मदत्तस्य च । पापा परदारतो रशमुखस्योच्चैरनुश्रूयते द्यूतादिव्यसनानि घोरदुरितान्युज्झेत्तदार्यस्त्रिधा ॥१७ जाग्रत्तीवकषायकर्कशमनस्कारापितैर्दुष्कृतश्चैतन्यं तिरयत्तमस्तरवपि द्यूतादि यच्छ्रे यसः। पुंसो व्यस्यति तद्विदो व्यसनमित्याख्यान्त्यतस्तद्वतः कुर्वीतापि रसादि सिद्धिपरतां तत्सोदरी दूरगाम् ॥१८ दोषो होढाद्यपि मनोविनोदार्थ पगोज्झिनः । हर्षामर्षोदयाङ्गत्वात् कषायो ांहसेऽञ्जसा ॥१९ त्यजेत्तौयत्रिकासक्ति वृथाटयां षिङ्गसङ्गतिम् । नित्यं पण्याङ्गनात्यागी तद्गेहगमनादि च ॥२० दायादाज्जोवतो राजवर्चसाद गृह्णतो धनम् । दायं वाऽपह नुवानस्य क्वाचौयं व्यसनं शुचि ॥२१ है ॥१५।। दो मुहूर्त अर्थात् चार घड़ीके बाद जलका नहीं छानना अथवा छोटे और छिद्र सहित पूराने वस्त्रसे छानना, अथवा छाननेके बादमें बचे हए इस जलका दसरे जलाशयमें डालना जलगालनव्रतमें योग्य नहीं ॥१६॥ यतः जुआ खेलनेसे युधिष्ठिरके, मांसभक्षणसे बकराजाके, मदिरापानसे यदुवंशियोंके, वेश्यासेवनसे चारुदत्तसेठके, चोरीसे शिवभूति ब्राह्मणके, शिकार खेलनेसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीके और परस्त्रीसेवनकी अभिलाषासे रावणके बड़ी भारी विपत्ति प्रसिद्ध है अतः दर्शनिक श्रावक मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे दुर्गतिके दुःखोंको देनेवाले हिंसा आदिक पापोंके कारणभूत जुआ आदिक सातों व्यसनोंको छोड़े ॥१७॥ यतः निरन्तर उदयमें आनेवाले तीव्र क्रोधादिकसे कठोर हुए आत्माके परिणामके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले पापोंके द्वारा मिथ्यात्वको उल्लङ्घन करनेवाले भी चैतन्यको आच्छादित करनेवाले जुआ आदि सातों ही व्यसन पुरुषोंको कल्याणमार्गसे भ्रष्ट कर देते हैं अतः विद्वान् लोग उन जुना आदिको व्यसन कहते हैं । इसलिये जुआ आदि सप्त व्यसनोंका त्याग करनेवाला श्रावक जुआ आदि व्यसनोंकी बहिन रसादिकोंके सिद्ध करनेकी तत्परताको भी दूर करे। विशेषार्थ-मनुष्यकी जो कुटेव या खोटी आदत मिथ्यात्वपर विजय प्राप्त करनेवाले, सम्यग्दर्शनयुक्त चैतन्यको भी श्रेयोमार्गसे भ्रष्ट कर देती है उसे व्यसन कहते हैं। इसलिए व्यसनोंका त्यागी दर्शनिक इन व्यसनोंकी बहिन ( उपव्यसन ) रसादिसिद्धिपरताको भी छोड़ देवे। क्योंकि इन कामोंमें भी मनकी वृत्ति व्यसनके समान श्रेयोमार्गसे विमुख करती है। ऐसा करनेसे सुवर्ण बनाया जा सकता है और बड़ा धनीपना प्राप्त हो सकता है। यदि ऐसा अंजन बनाया जावे कि जिससे जमीनमें गड़ा हुआ धन नेत्रोंसे दिखने लगे तो बड़ा काम हो जावेगा। मन्त्रादिकसे ऐसी खड़ाऊँ सिद्ध करना कि जिनके योगसे चाहे जहाँ अदृश्य होकर जाना हो सकता है। ऐसे कार्योंमें दिन रात लगा रहना तथा सब धर्म कर्म छोड़ देना उपव्यसनोंमें गिना जाता है ॥१८॥ जुआके त्याग करनेवाले श्रावकक मनोविनोदके लिये भी हर्ष और क्रोधको उत्पत्तिका कारण होनेसे शर्त लगाकर दौड़ना, जुआ देखना आदि अतिचार होता है क्योंकि वास्तवमें आत्माका रागद्वेष रूप कषाय परिणाम पापके लिये होता है ॥१९॥ वेश्याव्यसनका त्यागी श्रावक गीत, नृत्य और वाद्यमें आसक्तिको, बिना प्रयोजन धूमनेको, व्यभिचारी पुरुषोंकी संगतिको और वेश्याके घर जाने आदिको सदा छोड़ देवे ॥२०॥ जीवित उत्तराधिकारी भाई आदिसे राजाके प्रतापसे धनको ग्रहण करनेवालेके अथवा कुलको साधारण सम्पत्तिको भाई वगेरहसे छिपाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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