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________________ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार ४९९ भूतलेऽत्र समागत्य प्राप्य दिव्यं कुलादिकम् । पश्चावुत्कृष्टतो रत्नत्रयाखान्ति शिवालयम ॥१४ पत्र सिद्धा निराबाषा: विशुद्धाः कर्मजिताः । अनन्तसुखसम्पन्नाः सन्तिष्ठतेष्टभिर्गुणैः ॥१५ अनन्तानन्तकालेऽपि नैव तेषां च विकिया। एवं मत्वा जिनेन्द्रोक्त धर्मे कार्या मतिः सदा ॥१६ जीविते मरणे वाञ्छा भयं मित्रस्पृहा तथा। निदानं चेति संन्यासे पञ्चैते च व्यतिकमाः ॥१७ इत्यं श्रीजिनभाषितं शुभतरं धर्म जगत्-घोतकं सद-रत्नत्रयलक्षाणं द्वितयगं देवेन्द्र-चन्द्राचितम्। ये भव्या निजशक्ति-भक्तिसहिताः संपालयन्त्यावरात् ते नाकोन्द्र-नरेन्द्र-चक्रिपदवों भुक्त्वा शिवं यान्ति च ॥१८ ग्रन्थकार-प्रशस्तिः गच्छे श्रीमति मूलसङ्घतिलके सारस्वतीये शुभे विद्यानन्दिगुरुप्रपट्टकमलोल्लासप्रदो भास्करः। श्रीभट्टारकमल्लिभूषणगुरुः सिद्धान्तसिन्धुर्महा स्तच्छिष्यो मुनिसिंहनन्दिसुगुरुर्जीयात् सतां भूतले ॥१९ तेषां पादाब्जयुग्मे निहितनिजमतिर्नेमिदत्तः स्वशक्त्या भक्त्या शास्त्रं चकार प्रचुरसुखकरं श्रावकाचारमुच्चैः । महिमादि गुणोंसे संयुक्त दिव्य रूपको, दिव्य सम्पदाको और देवांगनाओंको प्राप्त कर और उनके साथ दिव्य भोगोंको भोगकर पुनः इस भूतलपर आकर और उत्तम कुलादिकको पाकर पश्चात् उत्कृष्ट रत्नत्रयसे शिवालयको जाते हैं ।।१३-१४॥ उस शिवालयमें रहनेवाले सभी सिद्ध जोव निराबाध अनन्त सुखसे सम्पन्न हैं, कर्मसे रहित हैं अतः विशुद्ध (निर्मल) हैं और सम्यक्त्वादि आठ महागुणोंसे युक्त रहते हैं ।।१५।। उस शिवधाममें अनन्तानन्तकाल बीतनेपर भी उन सिद्धों के कभी किसी प्रकारका विकार नहीं उत्पन्न होता है। ऐसा जानकर भव्य जीवोंको जिनेन्द्रकथित धर्ममें सदा बुद्धि करनी चाहिये ॥१६॥ उस संन्यासके जीवनकी इच्छा करना, मरणकी इच्छा करना, भय करना, मित्रोंकी इच्छा या स्मरण करना और निदान करना, ये पांच अतीचार होते हैं (सल्लेखनाको धारण करनेपर इन अतिचारोंका त्याग करें।) ॥१७॥ इस प्रकार श्री जिनभाषित, अतिशुभ, जगत्-प्रकाशक, देवेन्द्रचन्द्रसे पूजित, निश्चय और व्यवहार रूप दो प्रकारके लक्षणवाले उत्तम रत्नत्रय धर्मको जो भव्य जीव निजशक्ति और भक्तिसे सहित होकर आदरसे पालन करते हैं, वे देवेन्द्र, नरेन्द्र और चक्रवर्तीको पदवीको भोगकर मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥१८॥ ग्रन्थकारकी प्रशस्ति श्रीमान् मूलसंघके तिलकस्वरूप शुभ सरस्वती गच्छमें श्री विद्यानन्दि गुरुके पट्टरूप कमल को सूर्यके समान उल्लसित करनेवाले, सिद्धान्त महोदधि श्रीभट्टारक मल्लिभूषण गुरु हुए। उनके शिष्य श्री मुनि सिंहनन्दि गुरु हुए। वे इस भूतलपर सदा जयशील रहें ।।१९।। उन सिंहनन्दि गुरु के चरणकमल युगलपर अपनी बुद्धिको रखनेवाले नेमिदत्तने अपनी शक्तिके अनुसार उच्च भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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