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________________ ४९३ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार ये पूजयन्ति सद्-भक्त्या धर्मतत्त्वविदांवराः । श्रीजिनेन्द्रपदाम्भोज-द्वयं स्वर्मोक्षसोल्यदम् ॥२१० ते भव्या भुवने पूज्या भूत्वा पश्चाद्यथाक्रमम् । केवलज्ञानसाम्राज्यं संलभन्ते जगद्धितम् ॥२११। तथा भव्यैः समभ्यय॑ श्रीजिनेन्द्रान् जगद्धितान् । संस्तुतिभक्तितः कार्या सर्वपापप्रणाशिनी ॥२१२ ततो जाप्यं जगत्सारं कर्तव्यं परमेष्ठिनाम् । मनोवाक्कायसंशुद्धया दुर्गतिक्षयकारणम् ॥२१३ मन्त्रोऽयं त्रिजगत्पतः सत्पञ्चत्रिशदक्षरः । सञ्जप्यो भुवने भव्यैः सर्वपापप्रणाशकः ॥२१४ एतन्मन्त्रप्रसादेन तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः । का वार्ता परभव्यानां युक्तितस्तन्निसेविनाम् ॥२१५ यदुक्तम्प्रापद्देवं तव नुतिपदैर्जीवकेनोपविष्टः पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम् । कः सन्देहो यदुपलभते वासवश्रीप्रभुत्वं जप्यन् जाप्यरमलमणिभिस्त्वन्नमस्कारचक्रम् ॥२७ तथा गुरूपदेशेन जपं कार्य जगद्धितम् । षोडशाधक्षरैर्भव्यैर्यथागममुदाहृतम् ॥२१६ उक्तं चपणतीस सोल छप्पण चदु दुगमेगं च जवह झाएह । परमेट्टिवाचयाणं अण्णं च गुरूवदेसेण ॥२८ जानकार हैं, और सद्-भक्तिसे स्वर्ग और मोक्षको देनेवाले श्रीजिनेन्द्रदेवके चरण-युगलको पूजते हैं, वे भव्य इस भुवनमें पूज्य होकर, पश्चात् यथाक्रमसे जगत्-हितकर केवलज्ञानरूप साम्राज्य प्राप्त करते हैं ।।२०९-२११॥ इस प्रकार जगत्के कल्याण करनेवाले श्रीमज्जिनेन्द्रदेवकी पूजा करके भव्योंको परमभक्तिसे सर्वपापोंकी नाश करनेवाली उत्तम स्तुति भी करनी चाहिए ॥२१२।। तत्पश्चात् दुर्गतिके क्षयका कारण और जगत्में सार ऐसा पंचपरमेष्ठियोंके नामका जाप भी मनवचन-कायकी शुद्धिसे करना चाहिए ॥२१३।। पैंतीस अक्षरवाला 'णमो अरिहंताणं' इत्यादि अनादि मूलमन्त्र तीन लोकमें पूज्य है और सर्वपापोंका विनाश करनेवाला है, अतः भव्यजीव इसका सदा जाप करें ॥२१४|| इस मन्त्रके प्रसादसे तियंच जीव भी स्वर्गको गये हैं, फिर जो परम भव्य जीव युक्तिसे उसकी आराधना करते हैं, उनके पुण्यकी क्या बात है ।।२१५॥ जैसा कि कहा है-जीवन्धरकुमारके द्वारा उपदिष्ट तुम्हारे नमस्कारमन्त्रके पदोंको मरणसमयमें पाकर पापाचारी कुत्ता भी देवोंके सुखोंको प्राप्त हुआ, तो फिर जो निर्मल मणियोंके द्वारा आपके नमस्कारमन्त्ररूप चक्रको मालाओंसे जपता हुआ पुरुष देवेन्द्रकी लक्ष्मीके प्रभुत्वको पाता है, तो इसमें क्या सन्देह है ? कुछ भी नहीं ॥२७॥ तथा गुरुके उपदेशसे सोलह आदि अक्षरोंके द्वारा जैसा आगममें कहा है, तदनुसार जगत्हितकारी जप भी भव्योंको करना चाहिए ॥२१६॥ कहा भी है-पंचपरमेष्ठीके वाचक पैंतीस, सोलह, छह, पाँच, चार, दो और एक अक्षरवाले मन्त्रका जप और ध्यान करना चाहिए। तथा गुरुके उपदेशसे परमेष्ठी वाचक अन्य मन्त्रोंका भी जप और ध्यान करना चाहिए । भावार्थ-पूरा णमोकार मन्त्र पैंतीस अक्षरका मन्त्र है। 'अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः' यह सोलह अक्षरका मन्त्र है। 'अरहन्त सिद्ध', अथवा 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' यह छह अक्षरका मन्त्र है। 'अरहन्त' यह चार अक्षरका मन्त्र है। 'सिद्ध' यह दो अक्षरका और 'ओं' यह एक अक्षरका मन्त्र है ॥२८॥ और भी कहा है-पुष्पोंसे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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