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श्रावकाचार-संग्रह तथा चोक्तम्
दानेन तिष्ठन्ति यशासि लोके दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् ।
परोऽपि बन्धुत्वमुपैति वानात्तस्मात्सुदानं सततं प्रदेयम् ॥२५ पूजा श्रीमजिनेन्द्राणां पादपद्मद्वयोर्मुदा । महाभव्यैः प्रकर्तव्या लोकद्वयसुखप्रदा ॥२०१ तत्रापूर्व जिनेन्द्राणां शक्तिश्चेद् भक्तिपूर्वकम् । प्रासादं कारयित्वोच्चैर्ध्वजाद्यैः परिशोभितम् ॥२०२ स्वर्ण-रत्नादिकाश्चापि प्रतिमाः पापनाशिनीः । तत्प्रतिष्ठां विधायोच्चगरिष्ठां विधिपूर्वकम् ॥२०३ तत्र संस्थापयन्त्येवं ये भव्या शुद्धमानसाः । पञ्चकल्याणकोत्पन्नां ते लभन्ते सुसम्पदाम् ॥२०४ सामान्यतोऽपि देवेन्द्र-चक्रिलक्ष्मीन दुर्लभा । तेषामासन्नभव्यानां जिनभक्तिविधायिनाम् ॥२०५
उक्तंचएकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुगति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥२६ पञ्चामृतैजिनेन्द्रार्चा ये नित्यं स्नपयन्ति च । ते स्नाप्यन्ते महाभव्याः सुराधीशैः सुराचले ॥२०६ तथा जलादिभिद्रव्यैरष्टभैदैजिनाधिपान् । सम्पूजयन्ति ये भक्त्या ते पूज्यन्ते सदामरैः ॥२०७ इन्द्र-नागेन्द्र-चन्द्रार्केश्चक्रवादिभिर्मुदा। श्रीजिनेन्द्राः सदा पूज्या जगत्त्रयहितङ्कराः ॥२०८ तेषां श्रीमज्जिनेन्द्राणां केवलज्ञानसम्पदाम् । कि तैः पूजादिभिः साध्यं किन्तु भव्याः सुखाथिन: २०९ जित पुण्यके प्रमाणको कहने में समर्थ हो सकता है। सारांश यह है कि जैसे कोई भी व्यक्ति आकाशके नक्षत्रोंकी संख्या, समुद्रके जलका प्रमाण और जीवोंके भव-परिवर्तनोंको कहने में समर्थ नहीं है, वैसे ही सुपात्र दानके पुण्यका फल कहना भी सम्भव नहीं है ।।२४॥ और भी कहा हैदानसे लोकमें यश विस्तारको प्राप्त होता है, दानसे वैरभाव भी विनष्ट हो जाते हैं, दानसे अन्य जन भी बन्धुभावको प्राप्त होते हैं, इस कारण उत्तम दान सदा ही देना चाहिए ॥२५॥
श्रीमज्जिनेन्द्रदेवोंके दोनों चरणकमलोंकी दोनों लोकोंमें सुखको देनेवालो पूजा महाभव्योंको अतिप्रमोदसे करनी चाहिए ॥२०१।। यदि शक्ति हो, तो भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेवोंके ध्वजादिसे सुशोभित उच्च प्रासाद (जिनमन्दिर) बनवा करके और सुवर्ण-रत्नादिकको पापनाशिनी सुन्दर प्रतिमाएं बनवाकर और विधिपूर्वक उनकी उत्तम प्रतिष्ठा करके जो शुद्ध हृदय भव्य जीव उन जिनमन्दिरोंमें संस्थापित करते हैं, वे पंचकल्याणकोंसे उत्पन्न होनेवाली उत्तम सम्पदाको प्राप्त करते हैं ।।२०२-२०४॥ फिर जिनभक्ति करनेवाले उन निकट भव्योंको सामान्य रूपसे देवेन्द्र और चक्रवर्तीकी लक्ष्मी मिलना दुर्लभ नहीं है ।।२०५।।
कहा भी है-यह एक ही जिनभक्ति कृती पुरुषको दुर्गतिके निवारण करनेके लिए, पुण्योंको पूरनेके लिए और मुक्तिश्री देनेके लिए समर्थ है ।।२६।।
जो भव्य जीव पंचामृतोंसे नित्य हो जिन-बिम्बोंका अभिषेक करते हैं, वे महाभव्य सुमेरु गिरिपर देवेन्द्रोंके द्वारा अभिषिक्त होते हैं ॥२०६।। जो पुरुष जलादि आठ भेदवाले द्रव्योंसे भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रोंकी पूजा करते हैं, वे सदा ही देवोंके द्वारा पूजे जाते हैं ।।२०७।। भुवनत्रयके हितकारी श्रीजिनेन्द्रदेव इन्द्र, नागेन्द्र, चन्द्र, सूर्य और चक्रवर्ती आदिके द्वारा हर्षके साथ सदा ही पूज्य हैं ।।२०८।। केवलज्ञानकी सम्पदावाले उन श्रीमज्जिनेन्द्रदेवोंको पूजादिसे क्या साध्य है ? अर्थात् उन्हें अपनी पूजादिसे कोई प्रयोजन नहीं है। किन्तु जो सुखार्थी भव्य जीव हैं, धर्म तत्त्वके
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